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चारीप्रकरण
कहकर देते हैं कि समपादों में चलने की योग्यता तो है, इसलिए स्थानक में भी चारीत्व है। किन्तु इस युक्ति से 'दूसरे स्थानकों में भी चारीत्व है'---ऐसा कहना आसान हो जाएगा; इसलिए विद्वानों को यहाँ समाधान ढूंढ़ना चाहिए । यहाँ संगीत के श्रेष्ठ विद्वान् अशोकमल्ल ने समाधान किया है कि बराबर परिमाण में पैरों को रखकर चलना ही समपादा चारी है। (इस लक्षण में कोई त्रुटि नहीं है।) २. अड्डिता
समाङ्ग्रेः पुरतः पश्चादन्योऽग्रतलसञ्चरः। 991
निघृष्टोध्रिः क्रमाद् यत्र सा धीररड्डिता मता ॥९७४॥ जहाँ समपाद के आगे और पीछे दूसरा पैर अग्रभाग पर चले, फिर क्रमश: एक-एक पैर घसीटा जाय, तो उसे अड़िता भूमिचारी कहते हैं। . ३. बद्धा
कृत्वोर्वोश्चलनं जास्वस्तिकेन समन्वितम् ।। 992 स्वस्तिकेन विना चाघ्रितलाने मण्डलभ्रमात् ॥९७५॥ स्वं स्वं पाश्र्व गते यत्र सोक्ता वद्धति सूरिभिः ।
993 मिलिते प्रोचिरे लक्ष्यलक्ष्मणी केचिदत्र हि ॥९७६॥ जहाँ ऊरुओं के संचरण को जंघाओं की स्वस्तिकमुद्रा से युक्त करके (अथवा) बिना स्वस्तिक के भी, चरणतल के अग्रभाग में मण्डलाकार घुमाकर अपने-अपने पार्श्व में पहुँचा दिया जाय, वहाँ विद्वानों ने उसे बद्धा भूमिचारी कहा है। कोई आचार्य यहाँ लक्ष्य और लक्षण को सम्मिलित रूप में बताते हैं। ४. स्पन्दिता वामः समो निषण्णोरुरन्यस्तिर्यक् प्रसारितः ।
994 पञ्चतालान्तरं पादो यत्र सा स्पन्दिता मता ॥९७७॥ जहाँ बायाँ पैर सम हो, ऊरु बैठा हुआ हो और दूसरा पैर पांच तालों के अन्तर पर तिरछा फैला हुआ हो, तो उसे स्पन्दिता भूमिचारी कहते हैं । ५. विच्यवा चरणौ समपादाया विच्युत्य क्षितिकुट्टनम् ।
995 कुरुतश्चेत् तलाण सा तदा विच्यवोदिता ॥९७८॥