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स्थानक प्रकरण
च ।
नासादनले धायें भित्त्याद्यन्तरितेऽपि प्रांशुग्राह्यफलादीनां
ग्रहणेऽपि
तदीरितम् ॥२०॥
नाक तक (ऊपर उठे ) जल, धारण करने योग्य वस्तु, दीवार आदि की ओट में होने तथा लम्बे मनुष्य द्वारा पकड़े जाने योग्य फल आदि के लेने के अभिनय में उसका विनियोग होता है ।
तेईस देशी स्थानक (३)
१. समपाद
वितस्त्यन्तरितावङ्घ्री ऋजू साहजिकं वपुः । तत्र तत् स्थानमादिष्टं समपादं मनीषिभिः ॥२१॥
जहाँ दोनों पैर एक बित्ते के अन्तर पर तथा सीधे हों और शरीर स्वाभाविक स्थिति में हो, उसे मनीषियों ने समपाद स्थानक कहा है ।
२. स्वस्तिक
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यत्राङ्घ्री नूपुरस्थाने स्वस्तिकौ कुञ्चितौ यदा ।
मिथो लग्नकनिष्ठौ च तत् तदा स्वस्तिकं मतम् ॥ २२ ॥
जब दोनों कुंचित पैर नूपुरस्थान पर स्वस्तिकाकार हों और दोनों की कानी (कनिष्ठा) उँगलियाँ परस्पर सटी हुई हों, तब उसे स्वस्तिक स्थानक कहते हैं ।
३. संहत और उसका विनियोग
एतन्नियुज्यते धीरैः पुष्पांजलि समर्पित करने में धीर पुरुष इस स्थानक का विनियोग बताते हैं ।
४. वर्धमानक
पुष्पाञ्जलिविसर्जने ॥२३॥
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स्वाभाविकं यत्र गात्रमप्रयोरङ्गुष्ठकौ यदा । गुल्फावपि मिथः श्लिष्टौ तत् स्थानं संहतं तदा ।
जब शरीर स्वाभाविक स्थिति में हो और दोनों पैरों के अँगूठे तथा टखने परस्पर सटे हुए हों, तो उसे संहत स्थानक कहते हैं ।
पार्ष्णिश्लिष्टौ तिरश्चीनौ पादौ स्तो वर्धमानके ॥ २४ ॥ जब दोनों पैर तिरछे हों और उनकी एड़ियाँ सटी हुई हों, तब उसे वर्धमानक स्थानक कहते हैं ।
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