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३. आकुञ्चित और उसका विनियोग
नृत्याध्यायः
श्रीकुञ्चत्कायमाविद्धजानु त्वाकुञ्चितं मतम् । शीतार्ताभिनयेऽशोक मल्लेन सुविपश्चिता ॥ ४५ ॥
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जहाँ शरीर कुछ सिकुड़ा हुआ हो और घुटने मुड़े हुए हों, वहाँ आकुञ्चित सुप्त स्थानक होता है। विद्वान् अशोक मल्ल ने शीत-पीड़ित के अभिनय में उसका विनियोग बताया है ।
४. प्रसारित
उपधाय यदा बाहुं सुप्यते यत्र तत् प्रोक्तं
सम्प्रसार्य तु जानुनी । सुखसुप्ते प्रसारितम् ॥९४६॥
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जब बाँह को तकिया बनाकर और घुटनों को फैलाकर सुख से सोया जाय, तो उसे प्रसारित सुप्त स्थानक कहते हैं ।
५. विवर्तत
प्रधस्ताद्वदनं सुप्तं
सद्भिरुक्तं
विवर्ततम् ॥४७॥ मुँह को नीचे करके सोने पर विवर्तित सुप्त स्थानक होता है, ऐसा सज्चनों का अभिमत है । ६. उवाहित और उसका विनियोग
अंसे निधाय शीर्ष चेत्कूर्परेण धरातलम् । श्राश्रित्य शयनं यत्र स्थानमुद्वाहितं तदा । लीलयावस्थितौ सद्भिनरयोजिमहीभुजाम् ॥१४८॥
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जहाँ कन्धे पर सिर रखकर कुहनी से पृथ्वीतल का आश्रय लेकर शयन किया जाय, तो उसे उवाहित सुप्त स्थानक कहते हैं । राजाओं की लीलापूर्वक अवस्थिति के अभिनय में इस आसन का विनियोग होता है ।
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समवेत रूप में बावन प्रकार के स्थानकों का निरूपण समाप्त
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