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नृत्याध्यायः
या चार खण्डों के एक साथ संचरण को मण्डल कहते हैं । यत्र, ताल और चतुरस्र परिमाण में सज्जनों ने क्रमशः उनका प्रयोग बताया है । भूमिचारी के भेद
परा ।। ५५ ।।
समपादाडिता बद्धा स्पन्दिता विच्यवा तथा ॥ ६५४ ॥ जनितोत्सन्दिता चाषगतिरध्यर्धका परा । एकाक्रीडिताख्या च शकटास्याभिधा उरुवृत्ता स्थितावर्ता चार्यपस्पन्दिता तथा । समोत्सरितमत्तल्ली मत्तल्लीति क्रमादिमाः ॥ ५६ ॥ चार्य: षोडश भौम्य
-स्ताकाशिकीरधुना ब्रु ।
aftaar avataा भ्रमरी च मृगप्लुता ॥५७॥ पार्श्वकान्तोर्ध्वजानुश्च भुजङ्गत्रासिता परा । अाता दण्डपादाच विद्युद्भ्रान्ता च सूच्यपि ॥ ५८ ॥ दोलापादा तथोद्वृत्ताविद्धा नूपुरपादिका । श्रक्षिप्ताख्येति सम्प्रोक्ता श्राकाशिक्यश्च षोडश ॥ ६५६ ॥
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भूमिचारी के सोलह भेद होते है : १. समपादा, २ . अड्डिता, ३ . बद्धा, ४. स्पन्दिता, ५. विच्यवा, ६. जनिता, ७. उत्सन्दिता, ८. चाषगति, ९. अर्ध्याधिका, १०. एलकाक्रीडिता, ११. शकटास्या, १२ उरूद्वत्ता, १३. स्थितावर्ता, १४. अपस्पन्दिता, १५. समोत्सरितमत्तल्ली और १६. मत्तल्ली । आकाशचारी के भेद
चार्यो भूमिलिताः मार्यो द्वात्रिंशन् मुनिसंमता । इस प्रकार भरत मुनि के मत से दोनों चारियों के बत्तीस भेद होते हैं ।
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ar आकाशचारियों का निरूपण किया जाता है । उनके भी सोलह प्रकार होते हैं : १. अतिक्रान्ता, २. अपक्रान्ता, ३. भ्रमरी, ४. मृगप्लुता, ५. पार्श्वक्रान्ता, ६. ऊर्ध्वजानु, ७. भुजंगत्रासिता, ८. अलाता, ९. दण्डपादा, १०. विद्युद्भ्रान्ता, ११ सूची, १२. दोलापादा, १३. उबूत्ता, १४. आविद्धा, १५, नूपुरपादिका और १६. आक्षिप्ता ।