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स्थानक प्रकरण
अत्राधिदेवता दुर्गादोनों पैरों को विपरीत क्रम से रखने पर अवहित्य स्थानक बनता है। यहाँ कोई विद्वान् कटि और हस्त में विपर्यय बताते हैं । दुर्गा इस आसन की अधिष्ठातृ देवी हैं । -तद् रोषे विस्मयेऽपि च ।
.925 चिन्तालज्जावितर्केषु संलापेऽपि स्वभावजे ॥१०॥ स्वा [ङ्गा] वलोकने स्त्रीणां निजसौभाग्यगर्वतः । 926 वीक्षणे वरमार्गस्य [लीला] लावण्ययोरपि । विलासस्याप्यथाकारगोपनस्यापि सूचकम् ॥६११॥ 927
क्रोध, विस्मय, चिन्ता, लज्जा, वितर्क, स्वाभाविक वार्तालाप, स्त्रियों के अपने सौभाग्य के गर्व से अपने अंगों के अवलोकन करने, वर के मार्ग, लीला तथा सौन्दर्य को टकटकी (लगाकर) देखने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। विलास तथा आकार को छिपाने के अभिनय में भी उसका प्रयोग होता है। ३. अश्वकान्त और उसका विनियोग
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एकस्याघ्रः समस्यान्यः पार्णिदेशमुपागतः । सूचीपादोऽथवा स्वीयपार्वे तालान्तरे स्थितः ॥६१२॥ 928
समो यत्र तदाचष्ठाश्वक्रान्तं वीरसिहजः । जब एक सम पैर की एड़ी के पास दूसरा सूची पैर अवस्थित हो; अथवा एक सम पैर दूसरे पार्श्ववर्ती पैर के एक ताल के अन्तर पर स्थित हो, तो अशोकमल्ल के मत से उसे अश्वक्रान्त स्थानक कहते हैं।
तदश्वारोहणारम्भे ललिते विभ्रमे तथा । त्रुमशाखावलम्बे च संलापेऽपि निसर्गजे ॥१३॥ स्खलितेऽपि स्खलद्वासोधारणे गोप्यगोपने ।। 930
पुष्पगुच्छग्रहेऽप्येतत्सरस्वत्यस्य देवता ॥९१४॥ अश्वारोहण के आरम्भ, ललित हाव-भाव, वृक्षशाखा से लटकने, स्वाभाविक वार्तालाप, गिरने, गिरते हुए वस्त्र धारण करने, गोपनीय वस्तु को छिपाने और फूलों का गुच्छा पकड़ने के अभिनय में उसका विनियोग होता है। इस आसन को अधिष्ठातृ देवी सरस्वती हैं।
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