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चालन प्रकरण
४९. कर्णयुग्मप्रकीर्ण
उपकणं यदा तिर्यग्लुठितौ क्रमतः करौ । निजे पावें पुरोदेशपर्यन्तं यत्र तत्तदा । __857
कर्णयुग्मप्रकीर्णाख्यं चालकं कथितं बुधैः ॥८४६॥ जब दोनों हाथ तिरछे होकर कानों के समीप, अपने पार्श्व में और अग्रभाग में क्रमश: लोटते हैं, तब विद्वानों ने उसे कर्णयुग्मप्रकीर्ण चालन कहा है। .. ५०. नवरत्नमुख
विश्लिष्ट' वर्तिताद्यैश्च नवभिर्दशभिश्च वा। 858 उक्तः संसर्गरूपेण रचितश्चालकैर्यदि ॥८४७॥ पाकेशबन्धमुत्क्षिप्तः पश्चात्स्वस्तिकतां गतः । ततोऽन्याङ्गपरावृत्तौ धरासम्मुखतां गतौ ॥८४८॥ मण्डलाकारसम्प्राप्तौ तिरश्चीनौ ततः परम् ।
प्राविद्धावपविद्धौ च युगपत् क्रमतोऽथवा ॥३४६॥ - तत्कालाहक्रियायोग्यौ तदान्दोलनसंयुतौ ।
करावेवं यत्र तत् स्यान्नवरत्नमुखं तदा ॥८५०॥ उक्त नौ या दस अलग-अलग वर्तनाओं के सम्पर्क से बनाये हुए, जूड़े तक उछाले हुए और पश्चात् स्वस्तिक मुद्रा को प्राप्त किये हुए चालनों से दोनों हाथों को अन्य अंगों पर घुमाकर पृथ्वी के सम्मुख किया जाय; फिर तिरछा. करके मोड़ दिया जाय और दूर फेंक दिया जाय; अनन्तर एक साथ या क्रमश: तत्कालोचित क्रिया के योग्य आन्दोलन से युक्त किया जाय; अर्थात् हिलाया-डुलाया जाय । ऐसी क्रिया को नवरत्नमुख चालन कहते हैं। मतान्तर से अन्य भेद दिग्व ख्यमनकामोटनं तोरणाभिधम् ।
862 अनङ्गोद्दीपनं चाथ तथा मुरजकर्तरी ।
पञ्चेति चालकानि स्युरधिकानि मतान्तरे ॥८५१॥ 863 १. देखिए : 'वणिता' भरतकोश, पृ० ८६४.
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