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२७. हारवामविलासक
नृत्याध्यायः
भुजावंसान्तरं गत्वा युगपत् पार्श्वयोर्द्वयोः । पतेतां यत्र तत् प्रोक्तं हारदामविलासकम् ॥ ८०६ ॥
जब दोनों भुजाएँ कन्धों के बीच में जाकर एक साथ दोनों पावों में गिरते हैं, तब उसे हारदामविलासक चालन कहते हैं ।
२८. समप्रकोष्ठ
सम प्रकोष्ठ चलनमन्वर्थं
सद्भिरितम् ||८०७ ॥ 813 सज्जनों ने समप्रकोष्ठ चालन नामक चालन को अन्वर्थ बताया है; अर्थात् समप्रकोष्ठ ( कलाई से कुहनी तक के भाग) पर हाथ के चलने को समप्रकोष्ठ चालन कहते हैं ।
२९. मुरजाडम्बर
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तत्रैव यत्र
भवेदादत्तमण्डलः । पार्श्वयोर्वर्तनान्वितः ॥ ८०८ ॥ वामस्कन्धदेशमुपाश्रितः ।
गत्वा विदिशि सव्यापसव्यतो दक्षिणस्तु ततो क्षिप्रं विदिशि यात्वाथ लुठितः सव्यपार्श्वके ॥ ८० ॥ ततोऽन्यस्मिन् करे तिर्यक् नाभिदेशसमीपमे । लुठत्येतत् समादिष्टं मुरजाडम्बरं बुधैः ॥ ८१०॥
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दो दिशाओं के बीच (कोण) में जाकर वहीं मण्डल बना लिया जाय; फिर बायें दायें क्रम से पावों में वर्तना से युक्त दाहिने हाथ को बायें कन्धे पर रख दिया जाय; अनन्तर शीघ्रतापूर्वक बायें पार्श्व में दाहिने हाथ को लोटा दिया जाय; तत्पश्चात् बायें हाथ को नाभिदेश में तिरछा करके लोटा दिया जाय। इसी क्रिया को बुधगण मुरजाडम्बर चालन कहते हैं । ३०. तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्र
प्रसृतौ पार्श्वयोः पूर्वं हस्तकौ तदनन्तरम् । मिथोऽभिमुखतां प्राप्य जातस्वस्तिकबन्धनौ ॥ ८११ ॥ पुरतो धावतो यस्मिन् सविलासं यदा तदा । तिर्यग्यातस्वस्तिकाग्रं तत् सुमन्तुरभाषत ॥ ८१२ ॥
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