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मत्याध्यायः
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करयोः क्रियते यत्र पतनोत्पतनात्मिका । पुनः पुनः] क्रिया या स्यात् द्रुतमानेन लीलया ।।
कलविङ्कविनोदाख्यं चालनं तत् तदेरितम् ॥७६६॥ मस्तक के ऊपर दोनों हाथों को मध्य आकाश में एक बार हिलाकर दोनों पाश्वों में मण्डलाकार घुमाया जाय; फिर बार-बार तेजी से दोनों हाथों को लीलापूर्वक गिरा दिया जाय और उठा दिया जाय । ऐसी क्रिया को कलविद्धकविनोद चालन कहते हैं। २०. मण्डलान
मुष्टिविलुठित'स्त्वेकस्तदूर्ध्वं यात्य[था]परः । . 801 गतागतः पार्श्वयोः स पश्चात्तु पुरतो गतः ॥७६७॥ एवं सति पुनर्यत्र व्यत्यासात् करयोः क्रियाः ।
चालनज्ञैः समाख्यातं मण्डलामिदं तदा ॥७६८॥ एक मष्टि हस्त लोटता रहे और दूसरा ऊपर को जाय; फिर वह हाथ दोनों बगलों में जाय; पश्चात् आगे जाय; इस प्रकार बदल-बदल कर दोनों हाथों की क्रियाएँ जहाँ हों, वहाँ चालन के विशेषज्ञों ने उसे मण्डलान चालन कहा है। २१. चतुष्पत्राज
ऊवं विलुठितः पूर्व पश्चान्मण्डलवभ्रमः । 803 विलासेन चतुर्दिक्षु हस्तो यत्र प्रवर्तते ॥७६६॥ नाभिदेशसमीपस्थे लुठत्यन्यकरे . सति । 804
पर्यायाच्चेत् तत् तदोक्तं चतुष्पत्राब्जचालनम् ॥८००॥ जहाँ एक हाथ पहले ऊपर में लोटे पश्चात् चारों दिशाओं में हाव-भाव के साथ मण्डलाकार में घूमे और दूसरा हाथ नाभि के समीप बारी-बारी से लोटे, तो उसको चतुष्पत्राब्ज चालन कहते हैं। २२. बालव्यंजन
पर्यायेणोत्प्रकोष्ठं चेत् स्कन्धदेशान्तरं गतौ । करौ विलुठितो भूत्वाधोगतौ चक्रभावतः ।
यत्र स्तस्तत् तदादिष्टं बालव्यजनचालनम् ॥८०१॥ 806 १. देखिए : 'स्यक' भरतकोश, पृ० ८१५ ।
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