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१७. अंसवर्तनिक
मणिबन्धप्रकोष्टांसवर्तनाच्चलितोद्धृतैः
कि 'ञ्चित्साचिनतं शीषं विधायोपरिलोडनैः ॥७६०॥
परागधोमुखत्वेन लुठितैरुरसः पुरः ।
ततश्चेच्चलितैः पाण्योः कुटिलैः पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७६१ ॥ युगपत् क्रमतो यद्वा भूयते यत्र तत् तदा । अंसवर्तनिक प्रोक्तं तल्लक्षणविशारदैः ॥७६२॥
कलाई से लेकर कुहनी तक के भाग को चलाया जाय और सिर को कुछ तिरछा करके उसके ऊपर हाथों को हिलाया जाय; फिर ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख होकर वक्षःस्थल के समक्ष हाथों को लोटाया जाय; पश्चात् दोनों पाव में हाथों को कुटिल करके एक साथ या क्रमशः चलायमान किया जाय । ऐसी क्रिया को लक्षण के विशेषज्ञों ने असवर्तनिक चालन कहा है ।
१८. आदिकर्मावतार
चालन प्रकरण
१. देखिए: भरतकोश, पुं० ८१० ।
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वामदक्षिणयोर्मूनों युगपत् क्रमतोऽथवा । ऊर्ध्वाधोमण्डलभ्रान्तौ करौ स्वस्तिकतां गतौ ॥७६३॥ वर्तनास्वस्तिकौ पार्श्वयुग्मे
बृहन्मण्डल पूर्णौ चेत् पुरो श्रादिकर्मावताराख्यं
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मस्तक के वाम तथा दक्षिण भाग में एक साथ या क्रमशः स्वस्तिकाकार हाथों को ऊपर-नीचे मण्डलाकार में घुमाया जाय; फिर वर्तनास्वस्तिक नामक चालन वाले हाथों को दोनों पावों में मण्डल बनाकर घुमा दिया जाय; इस प्रकार बृहत् मण्डल से पूर्ण हाथ जब सामने लोटने लगते हैं, तब पूर्वाचार्यों ने उसे आदिकर्मावतार चालन कहा है ।
१९. कविविनोद
भणितं
मण्डलघूर्णितौ । विलुठतस्तदा । पूर्वसूरिभिः ॥७६४||
मूर्ध' देशोपरि करौ यद् मध्याकाशमेकदा । विलोड्य मण्डलाकारमथ चेत् पार्श्वयोर्द्वयोः ॥७६५॥
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