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९. बोल
चान करण
यत्रोर्ध्वोऽधोमुखस्त्र्यत्रं लीयया लुठितः क्रमात् । करस्तद्दोलमादिष्टं चालनं प्राक्तनैर्बुधः ॥७८०॥
जहाँ एक हस्त क्रमशः ऊर्ध्वमुख तथा अधोमुख होकर त्रिकोण में लोटता है, वहाँ उसको पूर्वाचार्यों ने बोल चालन कहा है ।
१०. नीराजित
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स्वस्तिकीभूय चेद्धस्तौ बहिरेव विनिर्गतौ । अन्तस्तिर्यक् चक्रभावान्मूध्नि सव्यापसव्ययोः । युगपल्लुठतो तन्नीराजितचालनम् ॥७८१ ॥
यत्र
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यदि दोनों हाथों को स्वस्तिक मुद्रा में रच कर बाहर की ओर निकाला जाय और फिर भीतर तिरछा करके चक्राकार में बाँये-दाँये क्रम से एक साथ मस्तक पर लोटा दिया जाय तो वह नीराजित चालन कहलाता है । ११. स्वस्तिकाश्लेष
वामदक्षिणयोस्तिर्यग्लुठनं
करयोर्यदा ।
स्वस्तिकाकारयोमंत्र तत् तदा तण्डुना मतम् । तदप्यन्वर्थनामकम् ॥७८३॥
वामदक्षतिरश्चीनं
बिभ्रतोः
स्वस्तिकाकारं करयोः स्कन्धदेशतः ।
वलनं चेत् तदा प्रोक्तं स्वस्तिकाश्लेषचालनम् ॥७८२|| 783 यदि स्वस्तिकाकृति धारण किये हुए दोनों हाथों को कन्धे के पास से घुमाया जाय, तो उसे स्वस्तिकाश्लेष चालन कहा जाता है ।
१२. वामवक्षतिरश्चीन
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एक: करो यदा कर्णदेशगोऽन्यस्तु वतितः । उत्सार्योद्वेष्टितेन स्याद् वर्तनाभरणं तदा ॥ ७८४ ॥
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जब दोनों स्वस्तिकाकार हस्त बाँये-दाँये क्रम से तिरछे लोटा दिये जायं, तब उसे आचार्य डु के मत से क्षतिरश्चीन चालन कहते हैं। यह उसकी अन्वर्थसंज्ञा ( अर्थानुरूप नाम ) है । १३. वर्तनाभरण
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