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नत्याध्यायः
लोको वेदस्तथाध्यात्म प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् । 703 तस्मानाट्यप्रयोगे तु प्रमाणं लोक इष्यते ।
इत्युक्तं मुनिना सर्वदर्शिना भरतेन हि ॥७०५॥ 704 सर्वदर्शी भरत मुनि ने तीन प्रकार के प्रमाण बताये है : लोक, वेद और अध्यात्म (धर्म)। इसलिए नाट्य-प्रयोग में लोक-प्रमाण को मानना चाहिए ।
स्वस्वचेष्टासमुद्भूत रसभावः पृथक् पृथक् ।
ज्येष्ठमध्यमनीचेषु नाटयं प्रीतिकरं भवेत् ॥७०६॥ 705 उत्तम मध्यम और अधम वस्तुओं या व्यक्तियों के अभिनय उनकी चेष्ठाओं (प्रकृति) से उत्पन्न रस-भावों द्वारा पथक्-पथक रूप में प्रदर्शित नाटय-प्रयोग हृदयग्राही होता है।
संग्रामधीरधुर्येण नृपानण्या मनीषिणा ।
अशोकेन समादिष्टा विचित्राभिनया इमे ॥७०७॥ 706 संग्राम में धैर्य धारण करने वाले पुरुषों में श्रेष्ठ, भूपतियों में अग्रणी और मनीषी (बुद्धिमान्) राजा अशोकमल्ल ने उक्त विचित्र अभिनयों का निरूपण किया।
विचित्राभिनय निरूपण समाप्त