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नस्याध्यायः
विचित्रवर्तनायोगादेकदाथ
क्रमाहतौ । वतितौ यत्र तत्रासौ केशबन्धाख्यवर्तना ॥७२५॥ 724 यदि केशबन्ध दोनों हस्तों को केशों के पास से निकाल कर विचित्रवर्तना के योग से एक-एक बार क्रमश: दोनों को आहत किया जाय तो उसे केशबन्धवर्तना कहा जाता है। १२. भालवर्तना
उर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ वतितौ भालवर्तना ।
चक्रवर्तनिकेत्यस्या नामान्तरमुदीरितम् ॥७२६।। 725 यदि दोनों ऊर्ध्वमण्डली हस्तों की रचना की जाय तो उसे भालवर्तना कहते है । उसका अपर नाम चक्रवर्तनिका भी कहा गया है। १३. उरस्थवर्तना
__उरःस्थवर्तनां विद्यादुरोमण्डलिनोः क्रियाम् ॥७२७॥ दोनों उरोमण्डली हस्तों की रचना को ही उरःस्थवर्तना कहा जाता है। १४. कक्षवर्तनिका
पार्श्वमण्डलिनोः स्वस्वपार्श्वयोभ्रंमणं यदा। 726
युगपत् क्रमतो वा स्यात् कक्षवर्तनिका तदा ॥७२८॥ यदि दोनों पार्श्वमण्डली हस्तों को अपने-अपने पार्यो में एक साथ या क्रमशः एक-एक करके घुमाया जाय तो उसे कक्षवर्तनिका कहते हैं । १५. खड्गवर्तना
कुश्चितो मुष्टिरेकोऽन्योऽश्चितः स्यात् खटकामुखः । 727
इमौ कोतिधरः प्राह खड्गवर्तनिकाल्यया ॥७२६॥ यदि एक मुष्टि हस्त कुञ्चित (सिकुड़ा हुआ) और दूसरा खटकामुख हस्त अञ्चित (झुका हुआ) हो, तो उसे खड्गवर्तना कहते हैं। १६. वडवर्तना
वतितौ दण्डपक्षी चेत् तदा स्याद् दण्डवर्तना ॥७३०॥ 728 यदि दोनों हाथों की दण्डपक्ष मुद्रा में रचना की जाय तो उसे दण्डवर्तना कहते हैं।