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६. दष्ट और उसका विनियोग
श्रधरे दशनैर्दशो दष्टं क्रोधे निरूपितम् ॥ ५५८ ॥
दाँतों से अधर (नीचे का ओंठ ) को काटना दष्ट कर्म कहलाता है। क्रोध के अभिनय में उसका विनियोग होता है ।
७. निष्कर्षण और उसका विनियोग
नृत्याध्यायः
निष्कर्षणं स्यान्निष्कासो मतं मर्कटरोदने ॥ ५५६ ॥
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दाँतों को बाहर निकालना निष्कर्षण कर्म कहलाता है । बन्दर के चिचियाने के अभिनय में उसका विनियोग होता है ।
८. ग्रहण और उसका विनियोग
परिकीर्तितम् ।
लेहनं जिह्वया लेहस्तल्लौल्याभिनये मतम् । इत्याह ग्रहणस्था भरतो मुनिसत्तमः ॥५६०॥
दातों से तृण आदि पकड़ना ग्रहण कर्म कहलाता है। मुनिश्रेष्ठ भरत ने ग्रहण कर्म के स्थान पर लेहन कर्म बताया है और जिह्वा से चाटने को लेहन कर्म कहा है। चंचलता या लोभ के अभिनय में उसका विनियोग होता है। छह प्रकार के कपोलों का अभिनय
कपोलों के भेद
तृणादेर्धारणं दन्तैर्ग्रहणं
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समौ क्षामौ कम्पितौ च फुल्लाख्यौ कुञ्चितावपि । पूर्णौ कपोलौ षोढेति तल्लक्ष्माद्यधुना ब्रुवे ।
दोनों कपोलों के छह भेदों के नाम हैं : १. सम, २. क्षाम, ३. कम्पित, ४. फुल्ल, ५. कुञ्चित और ६. पूर्ण । अब उनके लक्षणों का निरूपण किया जाता है ।
समादि और उनका विनियोग
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श्रन्वर्थलक्षणाः पञ्च ज्ञेयास्तत्र
समादयः ॥५६१॥
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सम आदि पाँच भेदों के लक्षण ( अपने-अपने ) अर्थ के अनुरूप समझने चाहिएं । (अर्थात् जो कपोल स्वाभाविक सम स्थिति में हों उन्हें सम; जो क्षीण या पिचके हुए हों वे क्षाम; जो कम्पनयुक्त हों वे कम्पित; प्रफुल्लित हों उन्हें फुल्ल; और जो सिकुड़े हुए हों उन्हें कुञ्चित कहते है ) ।
पूर्ण
यावुन्नतौ कपोल
तौ पूर्णौ धीरैरुदीरितौ ॥५६२॥