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नुत्याध्यायः
परावृत्त शीर्ष मुद्रा से अनिष्ट भाव को प्रदर्शित करे । बुद्धिमान् अभिनेता को चाहिए कि वह न अत्यन्त घृणा से और न अत्यन्त प्रसन्न मन से, अपितु मध्य भाव से मध्यस्थ भाव को अभिव्यक्त करे ।
इन्द्रियाभिनय (२) कर्णदेशस्थतर्जन्या तथा तिर्यग्निरीक्षणात् । 615
पानितेन शिरसा सुधीः शब्दं प्रदर्शयेत् ॥६२०॥ सधीजनों के चाहिए कि कान के पास तर्जनी उँगली को रखकर तिरछी चितवन डालते हए बगल में झके हए शिर से वे शब्द के भाव को प्रदर्शित करें।
सभ्र क्षेपेण नेत्रेण मनागाकुचितेन च । .. 616
तथा गण्डमुखस्पर्शः स्पर्शो धीरैर्निरूपितः ॥६२१॥ धीर पुरुषों को चाहिए कि 5 -भंगिमा से युक्त तथा कुछ आकुंचित नेत्र से और कपोल तथा मुख के स्पर्श से वे स्पर्श के भाव को प्रदर्शित करें।
शिरस्थितौ पताको द्वौ कृत्वेषद्वलिताननः । 617
दृष्टया निवर्णयन्त्यापि रूपमेवं विनिर्दिशेत् ॥६२२॥ दोनों पताक हस्तों को शिर पर रखकर और मुख को किञ्चित् झुकाकर गौर से देखते हुए रूप के भाव का द्यौतन करना चाहिए।
नयने किश्चिदाकुञ्च्य फुल्लां कृत्वा च नासिकाम् । 618
एकोच्छ्वासेन च प्राज्ञो रसगन्धौ प्रदर्शयेत् ॥६२३॥ नेत्रों को कुछ आकुंचित करके, नासिका को फुलाकर और एक ही साँस खींचकर पण्डित जन को रस और गन्ध के भाव का प्रदर्शन करना चाहिए । नृत्याय देवरङ्गायाः (?) शब्दाद्यभिनयो मया ।
619 निरूपितस्तथा ज्ञेया इन्द्रियाभिनया बुधैः ॥६२४॥ नर्तकी (?) के अभिनय के लिए मैंने शब्द आदि (इन्द्रिय विषयों) के अभिनय का निरूपण किया है। किन्तु विद्वानों को चाहिए कि इसी प्रकार वे कर्ण, त्वक, अक्षि, जिह्वा और घाण आदि इन्द्रियों का अभिनय भी जान लें।
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