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नत्याध्यायः
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ऋतूनिमानर्थवशात प्रयुञ्जीत यथारसम् ।
640 सुखितः सुखितेष्वेव दुःखितो दुःखितेषु च ॥६४३॥ इम ऋतुओं को (उनके ) प्रयोजनवश रस के अनुरूप प्रकट करना चाहिए । सुखी होकर सुखित वस्तुओं का और दुःखी होकर दुःखित वस्तुओं का भाव अभिव्यक्त करना चाहिए।
आविष्टो येन भावेन यः सुखेनापरेण वा । 641
स तज्जनितसंस्कारस्तन्मयं वीक्षतेऽखिलम् ॥६४४॥ जो व्यक्ति जिस भाव से, चाहे दुःख से या सुख से आविष्ट रहता है, उसमें उसका संस्कार निहित रहता है । अत: वह सब वस्तुओं को उसी रूप में देखता है।
प्रह्लादनेन गात्रस्य स्पर्शस्य ग्रहणात तथा ।
सुखं गन्धं रसं वायुं चन्द्रं ज्योत्स्नां निरूपयेत् ॥६४५॥ शरीर के आह्लादन और स्पर्श-ग्रहण से सुख, गन्ध, रस, वायु, चन्द्रमा तथा चाँदनी का अभिनय करना चाहिए ।
वासोवगुण्ठनाद् भानु धूलि धूमधनञ्जयौ । 643
उष्णं च भूमिसन्तापं दिशेच्छायाभिवाञ्छया ॥६४६॥ वस्त्र का घघट काढ़कर या ओट लगाकर सूर्य, धूल, धूम, अग्नि, गर्मी, भूमि-ताप तथा छाया का प्रदर्शन करना चाहिए।
दृष्ट्योलयाकेकरया मध्याह्ने दर्शयेद् रविम् ॥६४७॥ 644 आकेकरा दृष्टि को ऊपर की ओर करके दोपहर-सूर्य का भाव प्रदर्शित करना चाहिए।
सौम्यानि यानि वस्तूनि सुखभावोद्भवान्यपि ।
निर्दिशेत् तानि रोमाञ्चैत्रस्पशैश्च नाट्यवित् ॥६४८॥ 645 जो वस्तुएं सुखपूर्ण तथा अच्छे भावों से उत्पन्न हों उन्हें नाट्यवेत्ता को रोमांच तथा शरीर-स्पर्श से प्रकट करना चाहिए।
उद्वेगैरास्यसंकोचैरसंस्पर्शश्च नाट्यवित् ।
दर्शयेत, तीक्ष्णरूपाणि वस्त्वयोग्यकृतानि च ॥६४६॥ 646 नाटयवेता को अयोग्य व्यक्ति द्वारा निर्मित तीक्ष्ण रूपवाली वस्तुओं का अभिनय विना स्पर्श किये, उद्वेम के साथ तथा मुख सिकोड कर करना चाहिए।