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मृत्याध्यायः
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परितो गतया दृष्ट्या तर्जन्या भ्रमणेन च ।
सर्वार्थग्रहणं देश्यं सुधीभिर्नाट्यनृत्ययोः ॥६३१॥ नाटय-नृत्य के समय सुधीजनों को चारों ओर दृष्टिपात करके तथा तर्जनी उँगली को घुमाकर समस्त पदार्थों के ग्रहण करने का भाव प्रदर्शित करना चाहिए।
उत्तानितौ पताको द्वौ कृत्वा स्वस्तिकविच्युतौ ।
तथोद्वाहितशीर्षेण चित्रवागवलोकनः ॥६३२॥ दोनों पताक हस्तों को उत्तान तथा स्वस्तिक मुद्रा में विच्युत करके और उद्वाहित शिर से चित्र, वाणी तथा अवलोकन का भाव प्रदर्शित करना चाहिए । प्रसन्नास्यस्तथा स्वस्थसर्वेन्द्रियसमन्वितः ।
629 शरदं निदिशेन्नाटये पुष्पैरपि तदुद्भवैः ॥६३३॥ नाटय में प्रसन्नमुख तथा स्वस्थ इन्द्रियों से युक्त होकर शरद् ऋतु तथा उस ऋतु में उत्पन्न होने वाले पुष्पों का अभिनय करना चाहिए ।
कायसंकोचनाद् वह्नरीक्षयोर्ध्वनिरीक्षणात् । 630 प्राभ्यामेव कराभ्यां च पूर्वोक्तशिरसा तथा ।
हेमन्तर्तुर्विनिर्देश्यो मानवैर्मध्यमोत्तमः ॥६३४॥ 631 शरीर को संकुचित करके तथा ऊपर दृष्टिपात करके अग्नि का अभिनय करना चाहिए। मध्यम तथा उत्तम कोटि के मानवों को चाहिए कि उक्त दोनों पताक हस्तों और उद्वाहित शिर से वे हेमन्त ऋतु का भाव प्रकट करें।
दन्तोष्ठशिरसः कम्पाद् गात्रसंकोचनादपि ।
अधमोऽभिनयेच्छीतं क्रन्दितैरपि सीत्कृतः ॥६३५॥ 632 अधम पुरुष को चाहिए कि वह दांत, ओठ और शिर को कम्पित करके तथा शरीर को संकचित करके शीत का अभिनय करे । रोकर तथा सिसक कर भी वह इसका अभिनय कर सकता है।
उत्तमोऽपि कदाप्येवमवस्थान्तरसंयुतः ।
शीताभिनयनं त्वेवं विदध्याद् व्यसनोद्भवम् ॥६३६॥ 633 उत्तम पुरुष भी कदाचित् अन्य अवस्था (अर्थात् अधम अवस्था) को प्राप्त होने पर, विपत्ति-जनित इस शीत ऋतु का (उक्त विधि से) अभिनय करे ।