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विचित्रामिनय निरूपण
भावाभिनय (१) नाटयोपयोगिनः प्रायो विचित्राभिनया मया ।
ते लिख्यन्तेऽभिनेयार्थ व्यञ्जयन्तीव ये स्फुटम् ॥६१५॥ 610 जो मानो अभिनय योग्य वस्तु के भावों को अभिव्यक्त करने में समर्थ नाटयोपयोगी विचित्र अभिनय हैं, (नृत्य-जिज्ञासुओं के) अभिनय के लिए मैं प्रायः उन (सब का) यहाँ निरूपण कर रहा हूँ। .
सन्निकर्ष विना यस्य न वेत्यर्थ कथञ्चन । तस्योक्तो मनसो भावस्त्रिधा यत्प्रतिकोविदः ।
611 इष्टोऽनिष्टस्तथा मध्यस्तस्याभिनयनं यथा ॥६१६॥ जिसके संयोग या सामीप्य के बिना पदार्थ को किसी भी प्रकार नहीं समझा जा सकता है, उस मन के भाव को विद्वानों ने तीन प्रकार का बताया है : १. इष्ट, २. अनिष्ट और ३. मध्य । उस त्रिधा विभक्त भाव का अभिनय जिस प्रकार किया जाता है, उसे बताया जा रहा है। मुखस्यातिविकाशेन शरीराल्हादनेऽपि(? नेन) च ।
912 तथोल्लुकसितेनेष्टं दर्शयेन्नटायकोविदः ॥६१७॥ अप्रदानेन नेत्रस्य संकोचादक्षिनासयोः । परावृत्ताल्यशीर्षणाप्यनिष्टं . सम्प्रदर्शयेत् ॥६१८॥ जुगुप्सया न चात्यन्तं मनसा नातिहर्षिणा ।
614 मध्यभावेन मध्यस्थं भावं धीमान् निरूपयेत् ॥६१६॥ नाटयवेत्ता को चाहिए कि वह मुख को अति विकसित करके तथा शरीर को आह्लादित करके स्वच्छता (स्पष्टता) से इष्ट भाव का प्रदर्शन करे। फिर दृष्टिपात किये बिना आँख और नाक को संकुचित करके
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