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३. रक्त और उसका विनियोग
उपगि प्रकरण
रक्तोऽन्वर्थोऽद्भुते वीरे रौद्रे च करुणे तथा ॥ ५८३ ॥
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लाल मुखराग रक्त कहलाता है। अद्भुत, वीर, रौद्र और करुण रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है। ४. श्याम और उसका विनियोग
भयानके सबीभत्से श्यामोऽन्वर्थो निरूपितः ॥ ५८४ ॥
काला मुखराग श्याम कहलाता है। भयानक तथा वीभत्स रस के अभिनय में उसका विनियोग होता है । विशेषज्ञर्यथाभावं यथारसम् ।
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रसभावप्रकाशकः ॥ ५८५॥
एवमेव मुखरागो नियुक्तोऽसौ
इस प्रकार नाट्याचार्यों ने निर्देश किया है कि भाव और रस के अनुरूप, रस तथा भाव के प्रकाशक मुखराग का प्रयोग करना चाहिए ।
कृतोऽप्यभिनयस्तावच्छाखाङ्गोपाङ्गसंयुतः
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न भाति यावन्नोपैति मुखरागं यथारसम् ॥५८६ ॥
(भरत आदि नाट्याचार्यों का यह भी कहना है कि) शाखा, अंग और उपांग के सहित किया गया अभिनय तब तक शोभा नहीं देता, जब तक वह रस के अनुरूप मुखराग से समन्वित नहीं होता ।
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श्राङ्गिकाभिनयोऽल्पोऽपि मुखरागेण संयुतः ।
शोभां द्विगुणितां धत्ते शशाङ्केनेव शर्वरी ॥५८७॥
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थोड़ा भी आंगिक चेष्ठाओं द्वारा किया गया अभिनय मुखराग से समन्वित होने पर उसी प्रकार द्विगुणित शोभा को धारण करता है, जैसे चन्द्रमा से युक्त होने पर रात्रि ।
रसभावसमाकीर्णदृष्टिभ्र वदनान्वितम्
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प्रतिक्षणं
तथा नेत्रमन्यदन्यत् प्रवर्तते ॥ ५८८ ॥ तथोचितं प्रकुर्वीत मुखरागं प्रयोगवित् । यथारसं यथाभावमिति नृत्यविदां मतम् ॥ ५८६ ॥
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नाट्याचार्यों का अभिमत है कि रस तथा भाव से समाकीर्ण दृष्टि और भ्रू तथा मुख से संयुक्त जैसे-जैसे नेत्रों का अन्यान्य रूप में प्रसार हो, प्रयोगवेत्ताओं (अभिनेताओं) को चाहिए कि, उसी प्रकार रस तथा भाव के अनुरूप मुखराग का भी उचित रीति से प्रयोग करें ।
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