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नत्याध्यायः
जिसमें वरौनियों के अग्रभाग खिले हए तथा मिले हुए हों और पुतलियों सुख के कारण उन्मीलित हों वह दृष्टि मुकुला कहलाती है । आनन्द, सुन्दर, स्पर्श तथा गन्ध के भावों को अभिव्यक्त करने में उसका विनियोग होता है। ९. कुञ्चिता और उसका विनियोग
आकुञ्चत्पुटपक्ष्माया सम्यक्कुञ्चत्कनीनिका । या दृष्टिः कुञ्चिता सोक्ता तेजोदुष्प्रेक्षव[स्तु] नि । 463
प्रसूयिते तथानिष्टे नेत्रसंव्यथनेऽपि च ॥४५८॥ यदि पलक और बरौनियों के अग्रभाग सिकुड़े हुए हों और तारे भी अच्छी तरह सिकुड़े हुए हों, तो उसे कुञ्चिता दृष्टि कहते हैं । तेज, कठिनाई से दिखायी देने वाली वस्तु को देखने, ईर्ष्या, अनिष्ट और नेत्रपीड़ा के अभिनय में उसका विनियोग होता है। १०. अभितप्ता और उसका विनियोग
निरीक्षणालसे तारे व्यथया चलितौ पुटौ । 464 यत्र सन्तापलग्नान्ता साभितप्ता दृगीरिता ।
उपतापेऽभिघातेऽपि निर्वेदाभिनये तथा ॥४५॥ 465 जिसकी पुतलियाँ देखने में आलस्ययुक्त हों, व्यथा के कारण दोनों पलके चलायमान हों और कोरें सन्ताप में डूबी हुई हो, वह दृष्टि अभितप्ता कहलाती है। रोग, चोट और अवसाद के अभिनय में उसका निवियोग होता है। ११. जिह्मा
निगूढस्रस्ततारा या शनैस्तिर्यग्निरीक्षणा ।
आकणितपुटा गूढा जिह्मा दृष्टिरुदीरिता ॥४६०॥ 466 जिसकी पुतलियाँ छिपी एवं गिरी या लटकी हुई हों, धीरे-धीरे तिरछी चितवन डालती हों, जिसकी पलकें कुछ संकुचित हों और जो गूढ़ हों, वह दृष्टि जिह्मा कहलाती है। १२. ललिता और उसका विनियोग
सस्मिता कुञ्चितप्रान्ता मधुरा भ्र विकारयुक् । विकाशिता मनोजन्मविस्तारसहिता च या । सा दृष्टिललिता धीरैर्ललिते सम्प्रयुज्यते ॥४६१॥
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