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दृष्टि प्रकरण
२०. त्रिविषा मदिरा और उसका विनियोग
प्राणितान्तरा क्षामा किञ्चिदञ्चिततारका । विकाशिता चला दृष्टिमदिरा तरुणे मदे [१] ॥४७०॥ मनाकस्रस्तपुटा दृष्टिर्या किञ्चिभ्रान्ततारका । अनवस्थितसंचारा मुहुः पक्षमाग्रपीडिता ॥४७१॥ मदिरा सा मदे धीरैर्मध्यमे परिकीर्तिता [२] । अधस्तात्सञ्चरन्ती या किञ्चिल्लक्षिततारका ।
सनिमेषा च सा धीरैर्मदिरोक्ताऽधमे मदे [३] ॥४७२॥ 481 मदिरा दृष्टि के तीन भेद कहे गये हैं, जिनका लक्षण-विनियोग इस प्रकार है : (१) जिस दृष्टि का भीतरी भाग घूमता हो, जो क्षीण हो, जिसकी पुतली कुछ झुकी हो और जो खिली हुई तथा चंचल हो, उसे मदिरा कहते हैं । पूर्ण मद के अभिनन में उसका विनियोग होता है। (१) जिस दृष्टि की पलक कुछ गिरी हुई हो, पुतली कुछ घूम रही हो, गति अस्थिर हो और जो बरौनी के अग्रभाग से बार-बार पीड़ित हो, उसे भी मदिरा कहते हैं । धीर पुरुषों ने मध्यम मद के अभिव्यंजन में उसका विनियोग बताया है। (३) जो दृष्टि नीचे की ओर संचरण करती हो, जिसकी पुतली कम दिखायी पड़ती हो और जो पलक मारती हो, उसे भी मदिरा कहते हैं। धीर पुरुषों ने अधम मद के अभिनय में उसका विनियोग बताया है। . दृष्टि के अनन्त भेद
षत्रिंशद् दृष्टयस्त्वेता दिङ्मात्रेण मयोदिताः । अनन्ता भ्र पुटादीनां सन्दर्भात् सन्ति दृष्टयः ॥४७३॥ 482 स्फुटयन्त्यो रसादीन याः करैरपि निवेदिताः ।।
चतुर्मुखोऽपि ता वक्तुं समर्थो नेतरः कथम् ॥४७॥ 483 उक्त छत्तीस प्रकार की दृष्टियाँ मैंने केवल दिग्दर्शन के लिए बतायी हैं । भवों तथा पलकों आदि के संयोग से उनके अनन्त भेद हो जाते हैं। विभिन्न रसों के अनुसार उनका अभिव्यंजन होता है, जो कि हस्ताभिनयों के सन्दर्भ में यथास्थान निरूपित की गयी हैं। स्वयं ब्रह्मा भी उन समस्त भेदों का वर्णन करने में असमर्थ हैं। फिर दूसरे की बात का तो कहना ही क्या ?
छत्तीस प्रकार की दृष्टियों का निरूपण समाप्त