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दृष्टि प्रकरण
समभावेषु
भ्रमणं
प्राकृतं पातस्तु करुणे योज्यो वलनं
वीररौद्रयोः । वीररौद्रयोः ॥४६७॥
प्राकृत ताराकर्म का समभाव में, भ्रमण का वीर तथा रौद्र रस में, पात का करुण रस में और वलन का वीर तथा रौद्र रस के अभिनय में प्रयोग होता है । भयानके तु चलनं युज्यते तु प्रवेशनम् । हास्यबीभत्सयोर्धीरैः समुद्वृतं सतां मतम् ॥४६८॥
भयानक रस के अभिनय में चलन तथा प्रवेशन ताराकर्मो का विनियोग होता है। धीर पुरुषों का कहना है कि हास्य तथा बीभत्स रस के अभिनय में समवृत्तताराकर्म का विनियोग करना चाहिए ।
वीरे रौद्रेऽथ निष्क्रामो वीरे रौद्रे भयानके ।
समं
श्रद्भुतेऽप्यथ कर्तव्यं श्रृङ्गारे तु विवर्तनम् ॥४६६॥
A तथा रौद्र रस के अभिनय में निष्क्राम का और वीर, रौद्र, अद्भुत तथा शृंगार रस के अभिनय में विवर्तन तारा कर्म का विनियोग होता हैं ।
मध्यस्थतारकं
सौम्यं दर्शनं सममीरितम् ॥ ५०१ ॥ यदि तारों को बीच में अवस्थित करके सौम्य दृष्टि से देखा जाय तो उसे सम कहते हैं । २. साचि
विषयाभिमुख ताराकर्म (२) साच्यनुवृत्तं चावलोकितविलोकिते ।
श्रालोकितोल्लोकिते च प्रविलोकितमित्यपि ॥ ५०० ॥ विषयाभिमुखान्याहुर्दर्शनानीति
सूरयः ।
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विद्वानों ने तारों (पुतलियों) के विषयाभिमुखदर्शनों के आठ भेद बताये हैं : १. सम, २. साचि, ३. अनुवृत्त, ४. अवलोकित, ५. विलोकित, ६. आलोकित, ७. उल्लोकित और ८. प्रविलोकित ।
१. सम
तत् साचि यत् तिरश्चीनं पक्ष्मप्राप्त कनीनिकम् ॥ ५०२ ॥ यदि बरौनियों की ओर तारों को घुमाकर तिरछी चितवन से देखा जाय तो उसे साचि कहते हैं । ३. अनवृत्त
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कान्यदन्तश्चिरस्था या दिदृक्षा सा बुधैर्मता । निर्वर्णना तया
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युक्तमनुवृत्तमुदीरितम् ॥५०३॥
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