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नृत्याध्यायः
पराङ्मुखो नृणां याने प्रयोक्तव्यो विचक्षणः । 130
अधोमुखौ स्वस्तिकौ तौ गुरुपादाभिवन्दने ॥१२६॥ विद्वज्जनों को चाहिए कि मनुष्यों की सवारी के अभिनय में वे त्रिपताक हस्त को पराङमुख (अर्थात् प्रतिकूल दिशा में) करके प्रयुक्त करें। गुरु के चरणस्पर्श के अभिनय में दोनों विपताक हस्तों को स्वस्तिक बनाकर अधोमुख कर देना चाहिए।
विवाहदर्शने स्यातां श्लिष्टौ तावितरेतरम् । 131
भूपालदर्शने तौ स्तो विच्युतौ तु ललाटगौ ॥१२७॥ विवाह के अभिनय में दोनों त्रिपताक हस्त परस्पर सम्बद्ध करके रखने चाहिएं और 'राज-दर्शन के अभिनय में दोनों को अलग करके ललाट पर अवस्थित करना चाहिए।
तौ तिर्यक्स्वस्तिको स्यातां सम्बद्धौ वेश्मदर्शने । 132
तपस्विदर्शने स्यातां तावूध्वा तु पराङ्मुखौ ॥१२८॥ गह दिखाने में दोनों त्रिपताक हस्तों को स्वस्तिकाकार में संबद्ध करके तिरछा प्रदर्शित करना चाहिए। तपस्वी के दर्शन में उन्हें ऊपर करके पराङमुख (अर्थात् विरुद्ध दिशा में) कर देना चाहिए।
अन्योन्याभिमुखौ तौ तु वियोज्यौ हारदर्शने । 133
मुखाग्रसंश्रितौ कार्यावुत्तानाधोमुखीकृतौ ॥१२॥ हार के प्रदर्शन के अभिनय में उन दोनों हस्तों को एक-दूसरे के आमने-सामने करके दोनों के मुखाग्र भाग को मिलाकर उर्ध्वमुख तथा अधोमख कर देना चाहिए। .
नक्राणां वडवाग्नेश्च मकराणां च दर्शने । 134
अन्योन्याभिमुखौ द्वारे सहार्थे संयुतौ मतौ ॥१३०॥ घड़ियालों, वड़वाग्नि, मगरों, द्वार तथा साथ के अभिनय में दोनों हाथों को परस्पर सम्मुख करके संयुक्त कर देना चाहिए।
वानरे मुखदेशस्थावुत्तानाभिमुखाविमौ । 135
न जानामीति वाक्यार्थे छादितश्रोत्रसम्पुटौ ॥१३१॥ वानर के प्रदर्शन में दोनों हस्तों को उत्तान एवं आमने-सामने मुख के पास रखना चाहिए। 'मैं नहीं जानता है' इस कथन के प्रदर्शन में उनसे दोनों कर्ण-विवरों को ढक देना चाहिए।