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हस्त प्रकरण
२०. सन्दंश हस्त और उसका विनियोग
लग्नाने तु यदाङ्गुष्ठतर्जन्यौ निम्नकं मनाक् ।
तलमध्यमरालस्य तदा सन्दंश ईरितः ॥१६६॥ 175 यदि अराल हस्त-मुद्रा की तर्जनी और अंगुष्ठ उँगलियों के अग्रभाग को मिला दिया जाय और हथेली को भीतर की ओर थोड़ा झुका दिया जाय तो उसे सन्दंश हस्त (संडासी) कहते हैं।
इति त्रेधा भवेत्सोऽयमग्रजो मुखजस्तथा ।
पार्श्वजश्चाथ ते ज्ञेयोस्त्रयोंऽप्यन्वर्थलक्षणाः ॥१७०॥ 176 इस प्रकार सन्वंश हस्त के तीन भेद होते हैं : अग्रज, मुखज और पार्श्वज । उनके नामार्थ के अनुसार ही उनका प्रयोग भी समझना चाहिए ।।
कण्टकोद्धरणे सूक्ष्मपुष्पावचयनेऽपि च ।
केशपर्णतृणादीनां ग्रहणेऽप्यनजो मतः ॥१७१॥ 177 काँटा निकालने, सूक्ष्म पुष्पों को चुनने और केश, पत्ते तथा तृण आदि के ग्रहण करने में अग्रज सन्वंश हस्त का उपयोग करना चाहिए।
शल्यावयवनिष्कर्षेऽपकर्षे चाथ कीर्तितः । प्रसूनोद्धरणे वृन्ताद्धिगित्युक्तो च रोषतः ॥१७२॥ 178
वर्त्यञ्जनशलाकादिपूरणे चास्यजस्त्वथ । शरीरांगों में बरछा या तीर मारने तथा निकालने, डण्ठल से फूल तोड़ने, 'धिक्कार है' क्रोध से ऐसा कहने, बत्ती तथा अंजन-शलाका आदि के व्यवहार के अभिनय में मुखज सन्दंश का विनियोग करना चाहिए।
मुक्तादीनां गुणक्षेपे वेधनेऽपि च पार्श्वजः ॥१७३॥ 179 मणि-मुक्तादि के गुण बताने तथा (उनके) वेधन करने के अभिनय में अग्रज सन्दंश का विनियोग करना
चाहिए।
सद्वितीयः प्रयोक्तव्यस्तत्त्वस्य च निरूपणे । ध्यानाभिनयने चित्रकर्मण्यपि च भाषणे ॥१७४॥ 180 सक्रोधे वामहस्तेन मनागमविवर्तनात् । निष्पीडने - त्वलक्तस्य चायमुक्तो बुधैः करः ॥१७५॥ 181