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नत्याध्यायः
१३. वर्षमान हस्त और उसका विनियोग ..
मृगशीर्षी हंसपक्षौ करौ वा सर्पशीर्षको।
पराङ्मुखौ स्वस्तिको चेद्वर्धमानस्तदा करः ॥२५३॥ 260 यदि दोनों मृगशीर्ष या हंसपक्ष अथवा सपशीर्ष हस्तों को पराङमुख (उलटा) करके स्वस्तिकाकार बना दिया जाय तो उसे वर्धमान हस्त कहते हैं।
कपाटोद्घाटने त्वेष च्युतस्वस्तिक इष्यते ।
तादृगेव भवेदेष वक्षसः प्र(विदारणे) ॥२५४॥ 261 किवाड़ खोलने के अभिनय में इस हाथ की स्वस्तिक मुद्रा को खोल कर प्रयुक्त करना चाहिए। छाती फाड़ने के अभिनय में भी उसे उसी रूप में प्रदर्शित करना चाहिए।
विना कृतं स्वस्तिकेन केचिदिच्छन्ति तं बुधाः ।
सीमन्ताभिनये योज्यः स्त्रीभिस्तद्देशगः करः ॥२५५॥ 262 कछ विद्वानों का अभिमत है कि वर्षमान हस्त को स्वस्तिक मुद्रा की सहायता के बिना ही प्रदर्शित करना. चाहिए। सिर की माँग (सीमन्त) के अभिनय में स्त्रियों को चाहिए कि वर्षमान हस्त को वे सीमन्त पर अवस्थित करें।
तेरह संयुत हस्तों का निरूपण समाप्त,
नृत्तहस्त और उनका विनियोग १ चतुरस्र हस्त और उसका विनियोग
समांसकूपरौ वक्षःस्थलादष्टाङ्गुलान्तरौ । स्थितावुरः पुरस्ताच्चेत्प्राङ्मुखौ खटकामुखौ । 263
चतुरस्रो तदायदि दोनों मांसल कुहनियाँ छाती से आठ अंगुल की दूरी पर अवस्थित रहें और दोनों खटकामुख हस्त छाती के सामने पूर्वमुख होकर रहें तब उस मुद्रा को चतुरस्त हस्त कहते हैं।
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