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हस्त प्रकरण
जब एक हाथ पार्श्व में फैला दिया जाय और दूसरा उत्तान करके छाती पर रख दिया जाय; फिर 'करके छाती से अपने पार्श्व में ले आया जाय; इस प्रकार जब एक हाथ आवेष्टित अलपल्लव हस्त को व्यावृत क्रिया द्वारा अराल मुद्रा धारण कर वक्ष पर और दूसरा भी आवृत्ति द्वारा इसी स्थिति में पहुँच जाय; तब उन्हें उरः पाश्वर्वमण्डल हस्त कहा जाता है। ( इसमें एक हाथ अलपल्लव में छाती पर और दूसरा अराल में पार्श्व पर अवस्थित होता है) ।
१९. नलिनीपद्मकोश हस्त
करौ यदा ।
व्यावृत्ति क्रियया यत्र पद्मकोशौ प्रश्लिष्टस्वस्तिकीभूय मिथः स्यातां पराङ्मुखौ ॥ २८६ ॥ तदा स्तो नलिनीपद्मकोशावथ परेऽन्यथा । पद्मकोशाभिधौ हस्तावितरेतरसम्मुखौ ॥२०॥ मणिबन्धसमायुक्त भूत्वा प्राप्तौ पृथग्यदा । व्यावृत्तौ परिवृत्तौ च तदैताविति मेनिरे ॥२१॥ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां करौ पद्मकोशकौ । जानुनोनिकटं प्राप्ताविमौ केचित्तदा जगुः ॥२६२॥ अंसयोः कुचयोर्वापि निकटस्थौ विर्वात्ततौ । इमौ कीर्तिधरः प्राह पद्मवर्तनिकामपि ॥२९३॥
जब दोनों पद्मकोश हस्त व्यावृत्ति क्रिया द्वारा स्वस्तिक मुद्रा में परस्पर पृथक् होकर विमुख स्थिति हें तब उन्हें नलिनीपद्मकोश हस्त कहा जाता है । अन्य आचार्यों का कहना मे कि जब दोनों पद्मकोश हस्त पृथक्-पृथक् एक-दूसरे के आमने-सामने रहें और मणिबन्ध से युक्त होकर व्यावृत्त तथा परिवृत्त हों, तब उन्हें नलिनीपद्मकोश कहा जाता है । कुछ विद्वानों का अभिमत है किजब दोनों पद्मकोश हस्त व्यावृत्त तथा परिवृत्त क्रिया द्वारा घुटनों के निकट पहुँच जाँय, तब उन्हें नलिनीपद्मकोश कहा जाता है । आचार्य कीर्तिघर का कहना है कि जब दोनों पद्मकोश हस्तों को कन्धों और कुचों के समीस्थ करके घुमाया जाता है, तब उन्हें पद्मवर्तनिका भी कहा जाता है ।
२०. मुष्टिस्वस्तिक हस्त
तदापरम् ।
श्ररावर्तनापूर्व करमेकं कृत्वालपल्लवं शश्वद् विभूतः स्वस्तिकाकृतिम् ॥ २६४॥
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