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हस्त प्रकरण तद्वदङ्गान्तरेणापि दण्डपक्षो करौ मतो ।
310 परे प्रसारणं वाहोर्युगपत्प्रतिपेदिरे ॥३०१॥ जब एक हंसपक्ष हस्त को व्यावृत्त करके वक्षस्थल पर रख दिया जाय, बाहु को तिरछा करके फैला दिया जाय और दूसरे हाथ को भी इसी मुद्रा में अवस्थित किया जाय, तब उन्हें दण्डपक्ष हस्त कहते हैं। कुछ आचार्यों का मत है कि दण्डपक्ष हस्त मुद्रा में दोनों भुजाओं को एक साथ फैलाना चाहिए। २३. गडपक्षक हस्त
कटीदेशे करौ न्यस्तौ पताको चेदधोमुखौ। 311
तिर्यश्चावुत्पतन्तौ द्राग्गतौ गरुडपक्षको ॥३०२॥ जब दोनों पताक हस्तों को अघोमुख करके काटि पर रख दिया जाय और फिर वे तिरछे होकर तेजी से ऊपर की ओर उड़े या उठे, तब उन्हें गरुडपक्षक हस्त कहा जाता है। २४. अलपत्र हस्त
कर्मणोद्वेष्टिताख्येन वक्षःस्थावलपल्लवी । 312
अंसान्तिकं ततो गत्वा प्रसृतावलपद्मको ॥३०३॥ जब दोनों अलपल्लव हस्तों को उद्वेष्टित क्रिया द्वारा वक्षःस्थल पर रख दिया जाय; फिर कन्धे के पास जाकर उन्हें फैला दिया जाय, तब वे अलपदम हस्त कहे जाते हैं। २५. उस्वण हस्त
वक्षसः स्कन्धयोरूध्वं प्रसार्य स्कन्धसम्मुखौ। 313
विलोलाङ्गुलिकावेतौ कथिताबुल्वणौ करौ ॥३०४॥ जब दोनों हाथों को छाती और कन्धों के ऊपर फैलाकर कन्धों के सम्मुख उनकी उँगलियों को कम्पित कर दिया जाय, तो उन्हें उल्वण हस्त कहते हैं । २६. स्वस्तिक हस्त
अश्लिष्टस्वस्तिको हंसपक्षौ चेत्स्वस्तिकौ तदा ॥३०॥ 314 आश्लष्ट (पृथक्) होकर जब दोनों स्वस्तिक हस्त हंसपक्ष मुद्रा में अवस्थित हों, तब उन्हें कर स्वस्तिक हस्त कहते हैं। २७. विप्रकीर्ण हस्त
विच्युतौ स्वस्तिकावेतौ विप्रकीर्णौ करौ मतौ ।