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नुस्याध्यायः
पार्श्व-परिवर्तन के द्वारा दोनों हाथों को अपने पार्श्व में ताल-मात्रा के अन्तर पर अवस्थित किया जाय, तो उन्हें अरालखटकामुख कहते हैं।
तीस नृत्तहस्तों का निरूपण समाप्त
हस्ताभिनय का उपसंहार हस्ताभिनय विधान स्थानादिन्यासभेदेन सम्भवन्तोऽप्यनेकधा ।
328 कियन्तोऽपि मया प्रोक्ताः करा विस्तरभीरुणा ॥३१॥ अशोकमल्ल का कहना है कि स्थानादिकृत (स्थान, समय, अवसर, व्यक्ति तथा वस्तु आदि) भेद से हस्ताभिनयों के अनेक प्रकार हो सकते हैं; किन्तु विस्तार-भय से यहाँ मैंने उनमें से कुछ ही निरूपित किये हैं। दृष्टिभ्र मुखरागाद्यरुपाङ्गरपि पोषिताः ।
329 प्रत्यङ्गश्च करा योज्या रसभावप्रकाशकाः ॥३१६॥ (अभिनेताओं को चाहिए कि वे) दृष्टि, 5 और मुख आदि उपांगों और (वक्ष, पार्श्व, हाथ आदि) प्रत्यंगों से पोषित तथा रसों और भावों के प्रकाशक हाथों का प्रयोग करें।
अभिनयेषत्तमेषु भालस्था मध्यमेषु तु । 330 उत्तम अभिनयों में हाथ भाल पर, मध्यम अभिनयों में (संभवतः हृदय पर) अवस्थित होना चाहिए।
उत्तमे निकटस्थाः स्युर्मध्यस्थाः मध्यमेषु च ॥३२०॥ मध्यमे सात्त्विके प्रोक्तो मध्यमोऽथाल्पसात्त्विके । 331
प्रचुरः स बुधरेवं प्रचारस्त्रिविधस्मृतः ॥३२१॥ महापुरुषों का अभिनय करने में हाथों को निकटवर्ती और मध्यम पुरुषों के अभिनय में मध्य में होना चाहिए । मध्यम सात्त्विक भावों के प्रदर्शन में हाथों का मध्यम प्रकार से प्रयोग करना चाहिए । अल्प सात्त्विक १. यहां कुछ चरण छूट गये प्रतीत होते हैं । देखिए-संगीतरत्नाकर, अध्याय ७, श्लोक २४९-९२ ।