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नेत्याध्यायः
१०. अर्थरेचित हस्त
चतुरनस्तयोरेकश्वेत्तदा त्वर्धरेचितौ ॥२७२॥ 280 (उक्त रेचित हस्तों में) एक (बाँया) हाथ चतुरस्त्र में और दूसरा (दाँया) रेचित मुद्रा में हों तो उन्हें अर्धरचित हस्त कहते हैं। ११. पल्लव हस्त
व्यावृत्या तु भुजावूवं प्रसार्य परिवृत्तितः ।
अधोमुखौ पताको चेत्स्वस्तिको पल्लवौ तदा ॥२७३॥ 281 जब दोनों भुजाओं को ऊपर पीछे की ओर घुमाकर फैला दिया जाय और फिर दोनों हस्तों को पताक मुद्रा में घुमाते हुए अधोमुख करके स्वस्तिक बना दिया जाय, तब उन्हें पल्लव हस्त कहते हैं ।
शिथिलौ मेनिरे केचित् त्रिपताको कराविह । यदा नतोन्नतौ स्यातां पद्मकोशाभिधौ करौ ॥२७४॥ 282 शिथिलौ मणिबन्धस्थौ पुरो यद्वा स्वपार्श्वयोः । . तदाहुः पल्लवौ केचित् नृत्तविद्याविशारदाः ।
पताको तु बुधाः प्राहुः स्थाने तो पद्मकोशयोः ॥२७॥ कछ नाट्याचार्यों के मत से यदि त्रिपताक हस्तों को शिथिल कर दिया जाये तो उन्हें पल्लव हस्त कहते हैं। कुछ नृत्तविद्याविशारदों का कहना है कि यदि पदकोश दोनों हस्तों को नतोन्नत कर दिया जाय और वे सामने कलाइयों पर या दोनों पावों में शिथिल रहें तो वे पल्लव हस्त कहलाते हैं । किन्तु कुछ विद्वानों ने पद्मकोश हस्तों के स्थान पर पताक हस्तों को पल्लव हस्त कहा है। १२. ललित हस्त
शिरःक्षेत्रे यदा प्राप्तौ पल्लवौ ललितौ तदा । 284 चतुरस्रक्रियोपेतौ शीर्षस्थावचलौ परे ॥२७६॥ जगुरेतावथान्ये तु करौ तौ खटकामुखौ । 285
शनैर्गत्वा शिरोदेशं लग्नाग्राविति मेनिरे ॥२७७॥ जब दोनों पल्लव हस्तों को शिर पर रख दिया जाय, तब उस मुद्रा को ललित हस्त कहते हैं। दूसरे आचार्यों का कहना है कि जब दोनों चतुरस हस्त निश्चल हो कर शिर पर अवस्थित रहें, तब उन्हें ललित हस्त कहा
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