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हस्त प्रकरण
व्याधौ च सम्भ्रमे गर्वगतावपि स युज्यते । धीरैः स्तब्धो दोलितो वा पार्श्वयोर्लोकयुक्तितः ॥ २४८ ॥ 255 विषाद, मद, मूर्च्छा, व्याधि, हड़बड़ी तथा गर्वपूर्वक चलने के अभिनय में दोला हस्त का विनियोग होता है। धीर पुरुषों को चाहिए कि दोनों पावों के अभिनय में दोला हस्त को लोक-परम्परा के अनुसार निश्चल या चलायमान, जैसा उचित समझें, प्रयुक्त करें ।
११. अवहित्य हस्त और उसका विनियोग
शुकतुण्डाभिघौ
हस्तौ हृदयक्षेत्रसम्मुखौ । श्रधोमुखौ विधायाधो नीतौ ताववहित्थकः ॥ २४६ ॥ 256 यदि दोनों शुकतुण्ड हस्त हृदय के सामने अधोमुख करके नीचे की ओर ले जाये जाँय तो उसे अवहित्य हस्त कहते हैं ।
निःश्वासीत्सुक्यदौर्बल्य काय काश्यष्वसौ
मतः ।
सतृष्णे चानुरक्तेऽपि प्रतापे मण्डलेऽपि च ॥ २५० ॥ 257
साँस को बाहर निकालने या साँस लेने, उत्सुकता, दुर्बलता, शरीर-क्षीणता, सतृष्ण, अनुरक्त होने, प्रताप और मण्डल के अभिनय में अवहित्थ हस्त का विनियोग होता है । १२. मकर हस्त और उसका विनियोग
यदा पताकौ संश्लिष्टावुपरिस्थौ
परस्परम् ।
उर्ध्वाङ्गुष्ठावधौवक्त्रौ तदासौ मकरः करः ॥२५१॥ 258
यदि दोनों पताक हस्तों को ऊपर उठा कर तथा उनकी हथेलियों को निम्नमुख करके ( अर्थात् एक हथेली की पीठ पर दूसरी हथेली को रख कर ) उन्हें परस्पर मिला दिया जाय और दोनों हाथों के अंगुष्ठ ऊपर की या बाहर की ओर निकले हों, तो उसे मकर हस्त कहते हैं ।
मकरे
च
क्रव्यादे
नदीपूरे
मीने सिंहे च
नक्रेऽपि धीरैरेष
द्वीपदर्शने । प्रयुज्यते ॥ २५२ ॥
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राक्षस, मकर, मछली, सिंह, हाथी, नदी प्रवाह और घड़ियाल के अभिनय में मकर हस्त का विनियोग होता है ।
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