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नृत्याध्यायः
इनके अतिरिक्त अन्य कार्यों एवं भावों के अभिनय में भी विद्वान नत्यवेताओं को यथाविधि कपोत हस्त का प्रदर्शन करना चाहिए। ३. कर्कट हस्त और उसका विनियोग
करयोरखिलागुल्योऽन्योन्यमन्तरनिर्गताः । 226
दृश्यन्तेऽन्तर्बहिर्वा चेत्तदा स्यात्कर्कटः करः ॥२२०॥ यदि दोनों हाथों की सभी उँगलियाँ परस्पर बीच से निकल कर या गुंथी होकर भीतर और बाहर दोनों ओर से दिखायी दें, तब उसे कर्कट हस्त कहते हैं ।
एष सुप्तोत्थजृम्भायामङ्गानां च प्रसारणे । 227
अग्रे पावऽथवोर्व वा पराङ्मुखतलः करः ॥२२१॥ सोकर उठने के बाद जमुहाई लेने, अंगों के फैलाने, आगे, बगल अथवा ऊपर के भाव प्रदर्शित करने में कर्कट हस्त के तल भाग (हथेली) को पराङमुख कर देना चाहिए ।
बहिस्स्थिताङ्गुलिस्तु स्यादनादङ्गमोटने । 228
स्थूलोदरेऽप्यसावेवोदरसंस्थित इष्यते ॥२२२॥ अंगों में कामजन्य पीड़ा का भाव दर्शाने में उक्त हस्त की उँगलियों को बाहर की ओर रखना चाहिए। स्थूल उदर का भाव दिखाने में उसी हस्त को पेट पर रखना चाहिए। .
हनुं बिभ्रदसौ पृष्ठेऽङ्गुलीनां खेदसूचने । 220
अथान्तःस्थागुलिः कार्यश्चिन्तायां चिबुके स्थितः ॥२२३॥ खेद प्रकाश करने के आशय में कर्कट हस्त को उँगलियों पर ठुड्ढी रख देनी चाहिए और चिन्ता के भाव-दर्शन में उसकी उँगलियों को ठुड्डी पर रख देना चाहिए।
ईषद्वक्रीकृतान्योन्याभिमुखाङ्गुलिरेष तु। 230 शङ्खस्य धारणे योज्यो मुखेऽधः स्नानकर्मणि ॥२२४॥ द्विस्त्रिर्वा मूनि संयोज्यो गृहे तु स्यादधस्तलः । 231
हृदयक्षेत्रगः कार्यः किञ्चित्कुञ्चितकूर्परः ॥२२५॥ शंख धारण करने की मुद्रा में उक्त हस्त की उँगलियों को थोड़ा टेढ़ा और एक-दूसरे के आमने-सामने करके मुख पर रखना चाहिए। स्नान करने के अभिनय में उसे नीचे रखना चाहिए; अथवा दो-तीन बार मस्तक