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हस्त प्रकरण
२. कपोत हस्त और उसका विनियोग मूलाग्रपार्श्वसंश्लेषाद्विश्लेषात्तलयोरपि ।
220 यदा हस्तौ कपोताभौ कपोतो हस्तकस्तदा ॥२१४॥ केचिदेनं करं प्राहुः कर्मसंज्ञं विचक्षणाः ।
221 यदि दोनों हाथों के मूल भाग (कलाई) और अग्र भाग (उँगलियों के छोर) आपस में सटे रहें और तल भाग (हथेली) अलग-अलग रहे, तो उसे कपोत हस्त कहते हैं । कुछ विद्वान् इसे कूर्म हस्त कहते हैं ।
प्राणामे विनये कार्यों गुरुसंभाषणेऽपि च ॥२१॥ प्रणाम करने, विनय और गुरु से बात-चीत करते समय कपोत हस्त का विनियोग होता है ।
प्राङ्मुखः कम्पितो वक्षःस्थितः शीते स्त्रियामपि । 222
कातरे स्यादथेयत्तापरिच्छेदे तु विच्युतः ॥२१६॥ शीत और स्त्री के अभिनय में इस हस्त को कम्पित एवं पूर्वमुख रूप में छाती पर रखना चाहिए । कातरता और परिणाम या सीमा-निर्धारण के आशय में उसे विच्युत (अर्थात् सटे हुए. अंश को अलग) कर देना चाहिए।
सखेदवचसीदानोमित्यर्थस्य च सूचने । 223 प्राज्ञाप्रतिज्ञयोनाथ प्रसादेऽवहितेऽपि च ॥२१७॥ पक्षपाते पराधीने भक्षणे प्रतिपादने । 224
सेवायामपि योज्योऽसौ लोकयुक्त्यनुसारतः ॥२१॥ खद के साथ बोलने, 'इस समय' इस अर्थ को सूचित करने, आज्ञा, प्रतिज्ञा, स्वामी, प्रसन्नता, सावधान, पक्षपात, पराधीन, भक्षण, प्रतिपादन (निरूपण या समर्पण) और सेवा के अभिनय में भी लोक-परम्परा के अनुसार कपोत हस्त का प्रदर्शन करना चाहिए।
विच्युतश्लिष्टपार्योऽसौ भिक्षायां करपात्रिणाम् । 225 जिनके हाथ ही पात्र का काम करते हैं, ऐसे भिक्षुओं को भिक्षा देने के अभिनय में कपोत हस्त के तल मुख से सटे हुए भाग को अलग कर देना चाहिए।
इतराण्यपि कर्माणि बुधरूह्यानि युक्तितः ॥२१॥