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नृत्याध्यायः
तत्त्व-निरूपण में मुखज सन्दंश का उपयोग करना चाहिए । ध्यान, चित्रकर्म, भाषण और थोड़ा आगे फैला कर बायें हाथ से महावर पीसन के अभिनय में इसी हस्त का विनियोग करना चाहिए, ऐसा विद्वानों का अभिमत है।
योगे स्तोके निर्धने च गुरुयज्ञोपवीतयोः । वितर्के पेलवासूयानेत्ररञ्जन (द) शने ॥१७६॥ 182 कद्रौ तत्सुतविद्यायां विद्यातो (ष) विधावपि ।
स्मृतौ सम्भावनायां चानयनेऽपि हृदि स्थितः ॥१७७॥ 183 योग, अल्प, निर्धन, गुरु, यज्ञोपवीत, वितर्क, कोमल, असूया, काजल, दर्शन, कद्रु ( नागों की माता ), सर्पविद्या (तत्सतविद्यायां), विद्या, सन्तुष्ट करने की विधि, स्मरण, संभावना और आनयन के भाव-प्रदर्शन में मुखज सन्दंश हस्त को हृदय पर अवस्थित करना चाहिए ।
उद्भिन्ने विच्युतः स स्यान्मोचनीये करावुभौ । विच्युतावथ नेत्रादिस्फुरणे स्यादसौ करः ॥१७॥ 184
तद्देशसंश्रिते लक्ष्ये त्वेष कार्यः पुरःस्थितः । फोड़ कर निकली हुई वस्तु (जैसे सोता) के अभिनय में सन्दंश हस्त के सटे हुए अंश को अलग कर देना चाहिए। खोलने योग्य वस्तु के अभिनय में दोनों सन्देश हस्तों को वैसे ही विच्युत कर देना चाहिए। नेत्र आदि के फड़कने के अभिनय में भी उसी सन्देश हस्त का विनियोग करना चाहिए । नेत्र प्रदेश के लक्ष्य का आशय प्रकट करने में उसे आगे रखना चाहिए।
पिपीलिकास्वयं योज्यश्श्चलाधोमुखः करः ॥१७६॥ 185 क्षुद्रे विवर्तितः किश्चिद्दोषे तु परिवर्तितः ।
परिणामे पार्श्वमुखो ब्राह्मणे वामबाहुतः ॥१८०॥ 186 चींटियों के अभिनय में सन्दंश हस्त को कम्पित करके अधोमुख कर देना चाहिए। क्षद्र वस्तु के अभिनय में उसे घुमाकर और अल्प अपराध के आशय में बदल कर प्रदर्शित करना चाहिए। परिणाम के अभिनय के प्रदर्शन में उसे बगल की ओर झुका होना चाहिए और ब्राह्मण के भाव-निदर्शन में उसे बाँई भुजा की बगल से प्रयुक्त करना चाहिए।
आगते दक्षिणे पार्श्वे कर्तव्यो दशनेषु तु । तद्देशस्थो बुधरुक्तः कर्णस्थः कर्णभूषणे ॥१८१॥ 187