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नृत्याध्यायः
एषोन्नादावपस्थाने याचने विजयेऽपि च ॥१५१॥ 156
अर्हादेवतयोश्च स्यादाशीर्वादे हृदि स्थितः । अन्न आदि, उपस्थिति या सामीप्य (उपस्थान), याचना, विजय, पूजा, देवता और आशीर्वाद के अभिनय में अराल हस्त को हृदय पर रखना चाहिए।
ऊर्ध्वास्यः शिरसः पश्चान्मयूराभिनये मतः ॥१५२॥ 167 मयूर के अभिनय में उक्त हस्त को शिर के पीछे ऊर्ध्वमुख करके रखना चाहिए।
अङकुशाभिनये त्वेष मनागूपराङ्मुखः ।
देहस्वभावभावेषु हितेष्वेष स्वसम्मुखः ॥१५३॥ 158 अंकुश के अभिनय में उसे थोड़ा ऊपर पराङ्मुख करके रखना चाहिए और देह, स्वभाव, भाव तथा हित के आशय में उसे अपने सम्मुख रखना चाहिए।
निवारणे बहिःक्षिप्तोऽभिनेतव्योऽभिनेतृभिः ।
पराङ्मुखः परित्राणे मन्त्रिते मुखदेशगः ॥१५४॥ 159 अभिनेताओं को चाहिए कि निवारण (दूर करने या हटाने) के भाव-प्रदर्शन में वे उक्त हस्त को बाहर फेंक कर (अर्थात् झटका देकर) अभिनीत करें। बचाने के अभिनय में उसे पराङमुख करके और मंत्रणा के आशय में मुख पर रखकर प्रयक्त करना चाहिए।
अखण्डिते महालाभे भाग्यमाहात्म्ययोरपि ।
योग्यतायां च कर्तव्य उत्थितोऽथ बहिर्मुखः ॥१५५॥ 160 अखण्डित वस्तु, महान् लाभ, भाग्य, माहात्म्य और योग्यता के अभिनय में उसे उठाकर वहिर्मुख कर देना चाहिए।
श्राद्धकर्मणि योज्योऽयमथ द्रव्ये सुगन्धिनि । नासादेशगतः कार्यस्तथा खल्विति दर्शने ॥१५६॥ 161 तर्जन्याङ्गुष्ठको युक्त्वा वियुक्तो जनने भवेत् ।
मुखदेशाद्विनिर्गच्छन्नुपदेशे मतः सताम् ॥१५७॥ 162 श्राद्धकर्म के अभिनय में अराल हस्त का उपयोग करना चाहिए। सुगन्धित पदार्थ के अभिनय में उसे नासिका के पास रखना चाहिए। वैसा निश्चित ही हआ है' इस प्रकार के भाव-प्रदर्शन में अराल हस्त की तर्जनी
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