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हस्त प्रकरण
मण्ड
मणिबन्धप्रदेशस्थवलये
पराङ्मुखोऽथ खेदे स कपोलफलकाश्रितः ॥१४५॥ 150 कलाई पर धारित ककण या चूड़ी के भाव-प्रदर्शन में अर्षचन्द्र हस्त को मण्डलाकार बनाना चाहिए और खेद प्रकट करने में उसे उलटा करके कपोल पर रखना चाहिए।
कर्णान्तिकगतौ कार्यो कर्णाभरणदर्शने । 151
लोकयुक्त्यनुसारेण बलानिःकाशने मतः ॥१४६॥ कानों के आभूषण प्रकट करने में दोनों अर्धचन्द हस्तों को कानों के पास रखना चाहिए। किसी को बलपूर्वक निकालने के आशय में लोक-परम्परा के अनुसार अर्धचन्द्र हस्त का उपयोग करना चाहिए।
कुम्भाभिनयने स्यातां पुरतोऽन्योन्यसम्मुखौ ।
मध्यसाम्ये कटिस्थौ द्वावितरेतरसम्मुखौ ॥१४७॥ 152 घट के भाव-प्रदर्शन में दोनों अर्धचन्द्र हस्तों को आमने-सामने (संमुखावस्था में) रखना चाहिए और मध्य का साम्य दिखाने में दोनों को उसी प्रकार परस्पर संमुख करके कटिभाग में रखना चाहिए।
नियोज्यौ रस(? श)नायां च कर्तव्यौ तावधोमुखौ ।
मुखदेशगतावेतौ शङ्खाभिनयने करौ ॥१४८॥ 163 करधनी या रस्सी के भाव-प्रदर्शन में उक्त दोनों हस्तों को अधोमुख करके प्रयुक्त करना चाहिए और शंख के अभिनय में दोनों को मुख पर रखना चाहिए।
असंयुताविमावूर्वावुत्थितौ निजपाव॑तः ।
प्रयोक्तव्यौ करौ बालपादपाभिनये बुधः ॥१४६॥ 154 छोट-छोटे पौधों के अभिनय में नाट्यविद् लोग दोनों अर्धचन्द्र हस्तों को ऊपर उठाये हुए, बिना सटाये ही अपने बगल में रखें। १८. अराल हस्त और उसका विनियोग
तर्जनी चापवद्वका यत्राङ्गुष्ठस्तु कुश्चितः।
अगुल्याः पूर्वपूर्वस्या अङ्गुली चेत्परा परा ॥१५०॥ 155
.. भिन्नोच्चा स्यान्मनाग्वा तदारालः स कीर्तितः । यदि तर्जनी धनुष की तरह टेढ़ी हो, अंगुष्ठ कुछ मुड़ा हो; और पूर्व-पूर्व की उँगली से उत्तर-उत्तर की उँगली भिन्नता धारण किये उन्नत तथा कुछ वक्र हों (अर्थात् कनिष्ठा, अनामिका और मध्यमा क्रमशः उन्नत होती हुई उसी क्रम से कुछ वक्र हों) तो उसे अराल हस्त कहते हैं ।