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हस्त प्रकरेण
इमावन्योन्यसंश्लिष्टौ स (? ह्) द्गतावुत्थितौ पुनः ।
सम्भाविते प्रकर्तव्यौ पूर्वाचार्यैरिमौ करौ ॥१३२॥
पूर्वाचार्यों के मत से सम्भावना के अभिनय में दोनों त्रिपताक हस्तों को एक-दूसरे से मिलाकर पुनः हृदय पर उठाकर रख देना चाहिए ।
१६. कर्तरीमुख हस्त और उसका विनियोग
हस्तस्य त्रिपताकस्य यद्यश्लिष्टा तु तर्जनी । मध्यमायां स्थिता पृष्ठे तदासौ कर्तरीमुखः ॥१३३॥
यदि त्रिपताक हस्त-मुद्रा की तर्जनी उँगली को अलग करके उसे मध्यमा उँगली के पृष्ठभाग में अवस्थित किया जाय ( और मध्यमा को अनामिका के साथ हस्ततल की ओर मोड़ दिया जाय ) तो उसे कर्तरीमुख हस्त कहते हैं । स्थितौ च क्षेपे (च) तथैवात्मगतेऽप्यसौ । शून्ये तद्विधेत्यर्थे स भिन्नवलितो भवेत् ॥ १३४॥
मे
क्रम, स्थिति, क्षेपण, स्वगत भाषण, अशून्य तथा इसी प्रकार के अन्य अर्थों के अभिनय में कर्तरीमुख हस्त को बिना मोड़े हुए प्रदर्शित करना चाहिए ।
ऊर्ध्वास्योऽसौ कपोलादौ पत्रादिरचने मतः । अलक्तकादिचरणरञ्जने
सावधोमुखः कार्यो नासाक्षेत्रादथाग्रस्थो
भवेदुत्तानिताङ्गुलिः ॥१३६॥
कपोल आदि पर पत्र आदि की रचना करने के प्रदर्शन में इस हाथ का मुख ऊपर को होना चाहिए । महावर आदि से चरणों को रँगने तथा मार्ग दिखाने में उसे अघोमुख कर देना चाहिए । देखने के आशय में उसे कान के समीप ले जाकर फिर नाक के अग्र भाग में, उँगली को उत्तान करके, अवस्थित रखना चाहिए ।
लेखप्रवाचनेऽथासौ मरणे पतनेऽपि च ।
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मार्गदर्शने ॥१३५॥
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दर्शने कर्णदेशः ।
वितकतेऽपराधे च परिवर्त व्यतिक्रमे ॥१३७॥ व्यत्यस्ततर्जनीकः
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स्यादवाङ्मुखचलाङ्गुलिः ।
श्रयं तु पादविन्यासे योज्यस्तद्देशगो बुधैः ॥१३८॥
लेख बाँचने, मरण, पतन, दलील देने, अपराध, परिवर्तन और उल्लंघन के भाव - प्रदर्शन में कर्तरीमुख हस्त की तर्जनी को विपरीत दिशा में रखकर शेष उँगलियों को कम्पित कर देना चाहिए ।
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