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नृत्याध्यायः
अधोमुखः प्रयोक्तव्यश्व(?श्च)रणे ङ्गुध(?ष्ठ) देशगः । 26
अधरस्फुरणे त्वेषोऽधरस्थो विवृतोऽथ सः ॥२६॥ चरण का भाव प्रदर्शित करने में हंसास्य को पैर के अंगूठे के पास अधोमुख करके रखना चाहिए। 'निचले ओठ (अधर) के फड़कने के आशय में उसे मोड़ कर अघर पर रखना चाहिए।
चलाङ्गुलिस्तु लेपे स्यान्मुकुलोद्गमने तु सः। 27
ऊर्ध्वविच्युतसन्दंशः प्रसवेऽपि च संमतः ॥२७॥ . लेप या अंगराग का भाव दिखाने में हंसास्य की कम्पित उँगली का और कली के निकलने तथा प्रसव का भाव व्यक्त करने में उँगलियों को ऊर्ध्वावस्था में सँड़सी की तरह प्रयोग में लाना चाहिए।
ऊर्ध्वमुखो विचित्रः स्याद् वसन्ताभिनये करः । 28
अन्याङ्गुलिसमीपस्थो मुद्रायां स्यादधोमुखः ॥२८॥ वसन्त ऋतु के अभिनय में हंसास्य को ऊर्ध्वमुख और मुद्रा का भाव दिखाने में अन्य उँगलियां के समीप अधोमुख करके रखना चाहिए।
पुष्पितेऽधोमुखः कार्यः परिमण्डलितश्चलः । 20
उदये विवृतास्योऽथ द्विस्त्रिर्वोवं चलत्करः ॥२६॥ फूल खिलने के भाव में हंसास्य को मण्डलाकार अवस्था में कम्पित करते हुए अधोमुख रखना चाहिए और उदय का भाव दिखाने में उसे खोल कर तथा ऊर्ध्वमुख करके दो-तीन बार कम्पित कर देना चाहिए।
असावुडुगणे कार्यः परावृत्तस्त्वपुष्पिते । 30 नासादेशगतः कार्यः सुगन्धिद्रव्यदर्शने ।
उचितश्चयुतसन्दशः पुष्पोपचयनादिषु ॥३०॥ 31 तारों तथा अपुष्पित वृक्षों के अभिनय में हंसास्य को परावृत्त करना चाहिए। सुगन्धित द्रव्यों का भाव दिखाने में उसे नासिका के पास रखना चाहिए। फूल चुनने आदि का भाव प्रदर्शित करने में उसे खुली हुई सँड़सी के समान अधोमुख करना चाहिए। ७. भमर हस्त और उसका विनियोग
अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्योः सन्दंशे तर्जनी नता ।