________________
हस्त प्रकरण
_
यदि मध्यमा और अंगुष्ठ परस्पर मिले हुए हों और तर्जनी सँड़सी की तरह मुड़ी हुई (अंगुष्ठ के मूल का स्पर्श करती हुई) नत हो (और शेष दोनों उँगलियाँ अनामिका तथा कनिष्ठा सीधी फैली हों)तो उस हस्तमुद्रा को भमर हस्त कहा जाता है।
बुधैर्यो(?र्यो)ज्योऽथ विश्वासे बालालापे च भर्त्सने ॥३१॥ 32 ताले शोले(?ते) च कर्तव्यः सशब्दो विच्युतोऽपि सः ।। तालपत्रे त्वसौ कर्णक्षेत्रमण्डलितभ्रमः ॥३२॥ 33 अक्षरेषु चलन् कार्यो भ्रमरे त्वेष कम्पितः । अधोमुखो नियोज्योऽथ यन्त्रेहायामिमौ करौ। 34
इतरेतरसंश्लेषात्तर्जन्योः कथितौ बुधः ॥३३॥ नाट्यविशारदों के मतानुसार विश्वास, बालकों के साथ बात-चीत, डाँटने-फटकारने, तालपत्र और शीत आदि का भाव अभिव्यंजित करने में भ्रमर हस्त को सशब्द गिराकर प्रयोग में लाना चाहिए । तालपत्र के भाव-प्रदर्शन में इस हस्त को कान के चारों ओर घुमाकर प्रयुक्त करना चाहिए। अक्षरों के अभिव्यंजन में और भौंरों की अभिव्यक्ति में उसे कम्पित करके प्रदर्शित करना चाहिए। ग्रन्थि या कुण्डी (यंत्र) खोलने की इच्छा प्रकट करने में दोनों समर हस्तों को अधोमुख करके रखना चाहिए। बुधजनों का कहना है कि दोनों तर्जनियों के पारस्परिक गंथने के भाव में भी भ्रमर हस्त का प्रयोग करना चाहिए। ८. काँगूल हस्त और उसका विनियोग
यत्र वक्रानामिका स्यात् कनिछो(?ष्ठो)र्वा यदाङ्गुलिः । 35 शेषास्त्रेताग्निसंस्थाना अलग्नाग्रास्तदा करः ॥३४॥
कागुगूलः संज्ञितस्तस्य विनियोगः प्रकथ्यते । 36 यदि (अभिनय के समय) अनामिका मुड़ी हो, कनिष्ठा ऊपर की ओर हो, शेष अग्निस्थापन रूप तीनों (तर्जनी, मध्यमा और अंगुष्ठ) उगलियों के अग्रभाग परस्पर मिले न हों, तो उसे काँगूल हस्त कहा जाता है। उसका विनियोग इस प्रकार है:
. अल्पे फले मिते ग्रासे बालस्य चिबुकग्रहे ॥३५॥
चुचुकाभिनयेऽप्येष प्रसूने पञ्चकस्य च । 37 मन्त्रणे मुखदेशस्थः स्त्रीरोषवचने तु सः ॥३६॥ प्रास्यदेशेऽङ्गुलिपात्कर्तव्यो नृत्यपण्डितः ।
38