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नत्याध्यायः
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श्रोत्रकण्डूयने दुष्टश्रवणे चास्य तर्जनी। 96
कर्णरन्ध्रागता कार्या कुन्तले क्षेपणे पुनः ॥१३॥ कान खुजलाने, कटुवाणी सुनने, शिर के बाल और किसी वस्तु को फेंकने के आशय में सूचीमुख हस्त की तर्जनी को कान के छिद्र तक ले जाना चाहिए।
स्वेदापनयनेऽज्ञातपृच्छायां तर्जनेऽपि च । 97
लोकयुत्त्यनुसारेण योज्यषा नृत्यपण्डितः ॥१४॥ नत्याचार्यों का अभिमत है कि पसीना पोंछने, अज्ञात वस्तु के सम्बन्ध में पूछने और डांटने-धमकाने का भाव प्रकट करने में सूचीमुख हस्त का लोक परम्परा के अनुसार विनियोग करना चाहिए।
अधोमुखी ललाटस्था हराभिनयने मता । 98 इन्द्राभिनयने त्वेषा तिरश्चीना तथोन्नता ॥६५॥
परिवेषेभ्रमन्ती सा तिर्यग्मण्डलिताकृतिः । शंकर के अभिनय में सूचीमुख हस्त को अधोमुख करके ललाट पर रखना चाहिए और इन्द्र के अभिनय में उसे उन्नत तथा तिरछा प्रदर्शित करना चाहिए। (सूर्य आदि के) मण्डल के प्रदर्शन में उसे मण्डलाकार बनाकर तिरछा घुमाना चाहिए।
इदमर्थेऽधोमुखी साभिहिते मुखदेशगा ॥६६॥ 'यह इस लिए है ऐसा भाव प्रदर्शित करने में उसे अधोमुख कर देना चाहिए और कही हुई बात के अभिनय में उसे मुख पर अवस्थित रखना चाहिए।
ऊर्ध्वाधः पतिता कार्या भ्रमन्ती लोकसर्वयोः । 100
भ्रमन्त्यौ संयुते भ्रान्तौ संयुक्तासु सखोष्वियम् ॥१७॥ लोक तथा समष्टि का भाव दिखाने में इस हाथ को घुमाकर ऊपर से नीचे गिरा देना चाहिए। म्रान्ति का भाव प्रकट करने में दोनों सूचीमुख हस्तों को घुमाकर सटा देना चाहिए और समवेत सखियों के अभिनय में एक ही सूचीमुख हस्त को घुमाना चाहिए।
अधःपार्श्वगता कार्या संरम्भे स्वस्तिकाकृतिः । 101 अधोमण्डलिता कार्या पल्लवेऽथ मुखास्थिता ॥८॥