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मृत्याध्यायः
तलवार पकड़ने और दोनों हाथों से मल्लयुद्ध का भाव प्रदर्शित करने में मुष्टि हस्त का विनियोग होता है।
कथने स्कन्धदेशस्थः स मनाक्कलितो मतः । मध्ये मध्यप्रदेशस्थः स स्वयमित्यस्य दर्शने ॥४॥ हृदयस्थो निरालम्बे त्वसौ स्यात्परिवर्तितः । परिग्रहे यथौचित्यमप्यर्थे स्कन्धदेशगः ॥४६॥
तत्रेत्यर्थेऽप्यसावेव परिवर्तित इष्यते । 52 कहने का भाव प्रदर्शित करने में मुष्टि हस्त को ईषत् कम्पन के साथ कन्धे पर रखना चाहिए। मध्य का भाव दिखाना हो तो उसे मध्य में और 'वह स्वयं हुआ ऐसा भाव प्रदर्शित करने में हृदय पर अवस्थित रखना चाहिए। निराश्रय वस्तु को प्रकट करने में उसे परिवर्तित (उल्टा) कर देना चाहिए। पकड़ने या भोग-सामग्री ग्रहण करने के आशय प्रकट करने में उसे यथोचित स्थान पर रखना चाहिए। यह भी होगा ऐसा भाव दिखाने में उसे कन्धे पर, और वहाँ होगा' ऐसा आशय प्रकट करने में कन्धे के अतिरिक्त दूसरे स्थान पर रखना चाहिए।
भञ्जने कार्मुकादीनामुपर्येकः करोऽपरः ॥५०॥ मध्यस्थः स्याद्विचारे तु बाहुदेशस्थितो मतः । व्यावृत्तपरिवृत्तौ च वस्त्रकेशादिपीडने ॥५१॥ पतन्तावुत्पतन्तौ तौ वस्त्रप्रक्षालने क्रमात् । 54
संवाहनेऽप्यथ स्यातां धावने तौ पराङ्मुखौ ॥५२॥ धनुष आदि के तोड़ने के भाव में एक मुष्टि हस्त ऊपर और दूसरा मध्य भाग में (हृदय के पास) अवस्थित रहना चाहिए। किन्तु विचार का भाव प्रकट करने के लिए उसे बाँह पर रखना चाहिए । वस्त्रों और केशों को निचोड़ने में दोनों मुष्टि हस्तों को उलट-पलट कर अवस्थित करना चाहिए। वस्त्रों को धोने के आशय में उनको क्रमशः गिराते-उठाते रहना चाहिए । बोझा ढोने और दौड़ने का भाव दिखाने के लिए दोनों मुष्टि हस्तों को विपरीत स्थिति में रखना चाहिए। ११. शिखर हस्त और उसका विनियोग
ऊर्ध्वाङ्गुष्ठो यदा मुष्ठिस्तदासौ शिखरः करः। 55 यदि मुष्टि हस्त-मुद्रा में अंगठे को उँगलियों के ऊपर न मोड़ कर सीधे खड़ा कर दिया जाय, तो उस मुद्रा को शिखर हस्त कहते हैं।
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