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हस्त प्रकरण
हरिण के कान का भाव प्रदर्शित करने के लिए हथेली को उत्तानावस्था में रखना चाहिए । मुखदेशस्थितः प्रश्ने भये वाथ प्रकम्पितः । असमग्रे
प्रयोक्तव्यः
कीदृशे
मुखदेशगः ॥१०॥
प्रश्न और भय के भावों को अभिव्यंजित करने के लिए हाथ को कम्पित कर संमुखावस्था में रखना चाहिए । असमग्रता और ‘किस तरह ' का भाव व्यंजित करने में हाथ को संमुखावस्था में रखना चाहिए ।
तथा ग्रथितवस्तुनि । स्यात्काव्याद्यर्थनिदर्शने ॥११॥
इदमर्थे किमर्थे च उत्तानितो मुखस्थः
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'यह इसलिए हैं ' 'यह किसलिए है' ऐसा आशय व्यक्त करने तथा ग्रथित ( क्रमवद्ध या गुंथी हुई) वस्तु और काव्य आदि का अर्थ प्रकट करने के आशय में हथेली को मुख के सामने उत्तानावस्था में रखना चाहिए । उद्वेष्टितो दर्शने स्यात् प्रयोक्तव्ये उत्तानितोऽथ विश्वासे प्रयोक्तव्यो हृदि
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भवेदसौ । स्थितः ॥ १२ ॥
भवेदेष निन्दिते तु विवर्तितः ।
समे तूर्ध्वतलः स स्याद्दोषे तु हृदयस्थितः ॥ १३ ॥
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देखने के अर्थ में हथेली मुड़ी हुई; किसी वस्तु का प्रयोग करने में उत्तान और विश्वास के भाव प्रदर्शित करने में हृदय पर अवस्थित होनी चाहिए ।
परिवर्तितो
उत्तानो
सम्मतः ।
नयनौपम्ये पद्मपत्रेsपि प्रथातुरे तथा सत्ये वाक्ये युक्तेऽप्यसौ करः ॥ १४॥ यथोचितं बुधैर्योज्यः पथ्यकैतवयोरपि ।
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निन्दा के भाव प्रदर्शित करने में हथेली उलटी या घूमी हुई होनी चाहिए । समावस्था के अभिव्यंजन में हथेली ऊपर की ओर होनी चाहिए । यदि दोष का भाव प्रदर्शित करना हो तो वही उत्तान हथेली हृदय पर अवस्थित होनी चाहिए ।
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नेत्रों के सादृश्य तथा पद्मपत्र के भावाभिव्यंजन में हथेली को उत्तानावस्था में रखना चाहिए। आतुरता, सत्यता, समीचीन वचन, पथ्य और प्रवंचना के भाव प्रदर्शित करने में (उत्तान स्थिति में ) ; या नाट्यविशारदों द्वारा अभिमत हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए ।
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