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नत्याध्यायः
प्रतिज्ञा, स्वभाव, पाण्डित्य, परार्थ, समर्थता या समर्थन, विश्वास, आदर, सान्त्वना और गुण आदि के भावों को अभिव्यक्त करने के लिए हृदयस्थ अधोमुख हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए।
परिमण्डलितो रक्त वर्णे पीतेऽप्यसौ कनः (? र):।
सिते वर्णे तूर्ध्वगतो नीलेऽसौ पनि (? रि) मर्दितः ॥५॥ . 5 लाल और पीले रंग का भाव प्रदर्शित करने के लिए मण्डलाकार हस्तमुद्रा का प्रयोग करना चाहिए; किन्तु स्वेत वर्ण के लिए उत्तान हस्त का और नीले वर्ण के लिए परिमदित हस्त का प्रयोग करना चाहिए।
प्रादिष्टेऽधोमुखः स स्यात् सोदर्य बालकेऽपि च ।
स्वल्पे कुब्जे कुमार्यां च मध्ये मध्यस्थितो भवेत् ॥६॥ 6 आदेश देने, सोदर भाई और वाल-कथन का भाव प्रदर्शित करने के लिए हृदयस्थ हस्त को अधोमुख; और अल्पता, कुबड़ापन, कौमार्य और मध्यावस्था का भाव अभिव्यंजित करने के लिए हाथ को ऊर्ध्व-अधः की मध्यस्थिति में रखना चाहिए।
अपराधेऽप्युपादाने प्रिये च हृदि सम्मुखः ॥७॥ अपराध, स्वीकार या ग्रहण तथा प्रियजन के अभिनय में हृदयस्थ हाथ को संमुखावस्था में रखना चाहिए।
परिवृत्तस्त्वविनये मलिने दुर्लभेऽपि च । ।
अनुत्पन्नेऽनातुरे [?च] विस्मये निर्गुणेऽपि च । अविनय, मलिनता, दुर्लभता, अनुत्पत्ति, उदासीनता, विस्मय और निर्गुण का भाव अभिव्यंजित करने के लिए परिवृत्त चतुर हस्त का प्रयोग करना चाहिए।
विस्मृतावथ मायायां पापे व्यावर्तितः [?करः] ॥८॥ 8 विस्मृति, छल,कपट और पाप के आशय में ध्यावर्तित चतुर हस्त का विनियोग करना चाहिए।
-स स्यादधीने सम्मुखागतः ।
अङ्गल्यनासिकास्पर्शात्सुवर्णाभिनये भवेत् । अधीनता के अर्थ में और अनामिका उँगुलि तथा सुवर्ण का स्पर्श करने में हथेली को संमुखावस्था में रखना चाहिए।
मृगकर्णविनिर्देशे त्वसावुत्तानितो भवेत् ॥६॥