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ॐ समतायोग का मार्ग : मोक्ष की मंजिल * ३१ 8
जाना, दूसरों का अपने से भिन्न सम्प्रदाय, जाति, कौम वालों का अपमान, तिरस्कार करना, उन्हें बदनाम करना, नीचा दिखाना अथवा उनकी निन्दा-चुगली करना, ये सब इन द्वन्द्वों की विषमता में उलझने के कारण होता है। अहंकार-स्फीत होकर मनुष्य बोलने का विवेक भी खो बैठता है अथवा अपमान या निन्दा के कारण मनुष्य हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है। ___ 'भगवद्गीता' के अनुसार-“जो व्यक्ति सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख आदि तथा मान
और अपमान में अन्तर से प्रशान्त रहता है, ऐसे समाहितमना तथा जितात्मा (स्वाधीन आत्मा वाले) व्यक्ति के समन्दयुक्त ज्ञान में परमात्मा सम्यक् प्रकार से स्थित है। सचमुच समत्वयोगी परमात्मपद के निकट पहुँच जाता है। किन्तु समत्वयोग से वंचित व्यक्ति अपने पास सुख-सुविधा के अत्यधिक साधन जुट जाने से सुख के गौरव से फूल जाता है, इसके विपरीत दुःख, संकट या विपत्ति आ पड़ने पर वह हीनभावना से इतना ग्रस्त हो जाता है कि वह निराश-हताश होकर जीता है। वह सोचता है-संसार में मेरे लिये कहीं स्थान नहीं है, मेरा जीवन बेकार है। तात्पर्य यह है कि सुख और दुःख दोनों के साथ अहंता और हीनता की ग्रन्थि मनुष्य को विषमता की खाई में डालती है, वह समत्वयोग का आनन्द नहीं ले सकता।
जीवन और मरण का द्वन्द्व भी विषमता का उत्पादक ___ इसी प्रकार जीवन और मरण का द्वन्द्व = जोड़ा भी मनुष्य के चित्त को विषमता से भर देता है। मनुष्य का जीवन के प्रति अत्यधिक मोह और लगाव रहता है कि वह जीवन से रहित करने वाली या दुःखी करने वाली प्रत्येक घटना या व्यक्ति से घबराता है। संलेखना-संथारा के पाठ में इसका स्पष्ट वर्णन है। वह सर्प, चोर, डाँस, मच्छर, व्याधि, वात-पित्त-कफ-जनित रोग, शीत-उष्ण आदि द्वन्द्व तथा इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग आदि परिस्थितियों में मनुष्य के चित्त की विषमता उभर आती है, वह जीवन-मरण से ऊपर उठकर समभाव में-आत्म-भाव में स्थिर नहीं रह पाता। मनुष्य अनेक बार सुनता है, पढ़ता है, अपने जीवन में अनुभव भी करता है-देखता है कि जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है, सदा एक-सा रहने वाला या स्थायी रहने वाला नहीं है, फिर भी वह जीवन से मोह करता है, मरने से घबराता है। अनुभवी साधकों ने बताया है कि जीर्ण-शीर्ण वस्त्र को बदलने की तरह शरीर जीर्ण-शीर्ण होने पर या आयुष्य के कण समाप्त होने पर बदलता है।
१. जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।
शीतोष्ण-सुख-दुःखेषु तथा मानापमानयोः॥ -भगवद्गीता, अ. ६, श्लो. ७ २. देखें-भगवद्गीता में मृत्युविषयक श्लोक
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृहाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥ -वही, अ. २, श्लो. २२
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