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३० कर्मविज्ञान : भाग ८
लाभ-अलाभ के द्वन्द्व में ग्रस्त होने से कितनी समस्याएँ पैदा होती हैं ?
प्रायः देखा जाता है कि अधिकांश व्यक्ति अलाभ की स्थिति में भयंकर मानसिक पीड़ा से संतप्त रहते हैं । व्यवसाय में घाटा लग गया या कर्जदारी हो गई अथवा चोरी-डकैती होने से बहुत सा धनमाल चला गया, तो मानसिक स्थिति अत्यन्त चिन्तामग्न हो जाती है। कई लोग तो इसी चिन्ता के मारे आत्महत्या तक कर बैठते हैं। अभी-अभी समाचार-पत्र में पढ़ा था कि बम्बई के एक जौहरी के परिवार के ५ व्यक्तियों ने एक साथ आत्महत्या कर ली। उसकी वृद्ध माता ने भी जहर खा लिया था, किन्तु तत्काल उपचार कराकर कुछ लोगों ने उसे बचा लिया। कई विद्यार्थी परीक्षा में फेल हो जाने पर आत्महत्या कर बैठते हैं। किसी बड़े अफसर की पदावनति हुई कि वह व्याकुल होकर प्राण त्याग के लिए उतारू हो जाता है। जान-बूझकर मरने से या आत्महत्या करने से उसे वह अभीष्ट लाभ नहीं मिल पाता, उलटे वह इहलोक और परलोक दोनों जगह दुःखी होता है । किन्तु वह 'मृत्यु का इसलिए वरण करता है कि उसने अपने चित्त को लाभ और अलाभ के द्वन्द्व में उलझा रखा है। अतिलाभ होने पर भी कई व्यक्ति उस खुशी को सहन नहीं कर पाते और हार्ट फेल होकर मर जाते हैं। यह सब चित्त की विषमता के प्रकार हैं। चित्त में समता न होने से ये सब घटित होते हैं। जितनी सामाजिक या आर्थिक विषमता पीड़ित नहीं करती, उतनी या उससे भी अधिक यह मानसिक विषमता पीड़ित करती है । इसी विषमता के कारण समताधारक कहलाने वाले तथाकथित व्यक्ति भी समता का दिवाला निकाल देते हैं। 'गीता' में स्पष्ट कहा है- " जो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित नहीं होता और अप्रिय को पाकर उद्विग्न नहीं होता, ऐसा स्थिरबुद्धि ब्रह्मवेत्ता (सम्यग्दृष्टि ) पुरुष सच्चिदानन्द ब्रह्म (वीतरागं परमात्मा) में स्थित है। अर्थात् वह वीतरागभाव में तल्लीन है।" "
सम्मान-अपमान तथा निन्दा - प्रशंसा का द्वन्द्व भी विषमतावर्द्धक
उपाध्याय
सम्मान और अपमान का अथवा निन्दा और प्रशंसा का द्वन्द्व भी सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक विषमता से, यहाँ तक कि धार्मिक और आध्यात्मिक विषमता से भी जुड़ा हुआ है। बड़े-बड़े अधिकारी, पदाधिकारी, आचार्य, एवं साधु-संन्यासी भी इस विषमता से ग्रस्त हैं । निन्दा होती है, तो व्यक्ति तिलमिला जाता है और निन्दा करने वाले पर रोष, द्वेष एवं वैर-विरोध कर बैठता है, उससे बदला लेता है, रौद्रध्यानग्रस्त हो जाता है। यह समतायोग से अनभ्यस्त का लक्षण है। इसी प्रकार प्रशंसा होने पर या सम्मान गिलने पर फूल जाना, अहंकारग्रस्त हो
१. न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य, नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ।
स्थिरबुद्धिरसम्मूढो, ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थितः ॥
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-भगवद्गीता ५/२०
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