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काल का स्वरूप
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नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव जितने आयुष्कर्म का उपार्जन कर उसका जीवनकाल में अनुभव करते हैं, वह यथायुष्ककाल है । उपक्रमकाल सामाचारी उपक्रम और यथायुष्क उपक्रम के भेद से दो प्रकार का होता है। इसमें कर्मपुद्गलों को अपने उदयकाल से पूर्व उदय में लाकर भोगा जाता है। विशिष्ट स्थिति से युक्त का बोध करना देशकाल है। मरण का समय ‘कालकाल है। काल का निश्चित माप निर्धारित कर गणना करना प्रमाणकाल है । यह अद्धाकाल का भी भेद है । स्थानाङ्गसूत्र की टीका में स्पष्ट किया गया है कि जिससे सौ वर्ष, पल्योपम आदि प्रमाण मापा जाता है वह प्रमाण काल है ।" श्यामवर्ण को वर्णकाल माना गया है तथा औदयिकादि पाँच भावों की सादि, सान्त आदि विभागों के साथ जो स्थिति बनती है उसे 'भावकाल' कहा गया है। पुद्गल परावर्तन
इस विषय के विवेचन से सम्बद्ध दो पाण्डुलिपियों 'पुद्गल परावर्तन विचार' एवं 'पुद्गल परावर्तन' का अवलोकन किया गया है ।82 'पुद्गल परावर्तन विचार' पाण्डुलिपि से स्पष्ट होता है कि काल को मापने की 'पुद्गल परावर्तन' सबसे बड़ी इकाई है, जिसमें अनन्त उत्सर्पिणी एवं अनन्त अवसर्पिणी युक्त कालचक्रों का अन्तर्भाव हो जाता है।
जैन दर्शन में व्यवहार काल को संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से समझा जाता है । समय, आवलिका, मुहूर्त, अहोरात्र, ऋतु, अयन, संवत्सर से लेकर शीर्ष प्रहेलिका (194 अंक) तक के काल की गणना संख्यात काल में होती है । पल्योपम एवं सागरोपम को उपमा से समझाया गया है । उसे अंकों से वर्षगणना करके समझाना सम्भव नहीं है। एक ऐसा पल्य जो एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा एवं एक योजन गहरा हो, उसे एक से सात दिन वाले नवजात शिशु के बालों के टुकड़े कर उनसे ठसाठस भर दिया जाए। उस पर से हाथी, घोड़े फिरा दिए जाएँ, सौ वर्ष में एक बाल निकाला जाए और इस विधि से जितने काल में वह पल्य खाली हो उसे पल्योपम कहा जाता है। दस कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है । काल की गणना में पृथ्वीकाल शब्द का भी प्रयोग होता है, जो इस तथ्य का द्योतक है कि पृथ्वीकाय के जीव अधिकतम कितने समय तक