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काल का स्वरूप
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है। एक-एक कालाणु शक्तिभेद से प्रतिक्षण अनन्त पर्यायों का वर्तन करता है। अनन्त शक्ति सम्पन्न काल व्यवहार से अनन्त समय वाला है । द्रव्य से वह लोकाकाश प्रदेश परिमाणक होने से असंख्येय ही होता है, आकाशादि के समान वह एक नहीं होता और न ही अनन्त होता है ।
काल का अनस्तिकायत्व
यहाँ पर यह भी स्पष्टतः जान लेना आवश्यक है कि अस्तिकाय और द्रव्य ये दोनों भिन्न पारिभाषिक शब्द हैं । ' अस्तिकाय' में 'अस्ति' शब्द त्रिकालवाची निपात है तथा 'काय' शब्द प्रदेशों के समूह का द्योतक है ।" अर्थात् जो प्रदेश समूह कालत्रय में एक साथ रहते हैं वे अस्तिकाय कहलाते हैं । ' अस्ति' शब्द का प्रदेश अर्थ भी किया जाता है | अतः प्रदेशों का समूह अस्तिकाय कहलाता है ।” काल में प्रदेश प्रचय नहीं होता । प्रदेश प्रचय के अभाव में उसे अनस्तिकाय स्वीकार किया जाता है
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अस्तिकाय एवं द्रव्य में क्या भेद है, यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से स्पष्ट होता है । वहाँ गौतम गणधर का भगवान् महावीर के साथ जो संवाद हुआ" उससे विदित होता है कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय नहीं होता । उसके दो, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नव, दश, संख्यात एवं असंख्यात प्रदेश भी धर्मास्तिकाय नहीं होते । धर्मास्तिकाय का अखण्ड ग्रहण होने पर ही उसे धर्मास्तिकाय कहा जाता है। एक प्रदेश भी न्यून होने पर उसे धर्मास्तिकाय कहना सम्भव नहीं । जब धर्मास्तिकाय के समस्त असंख्यात प्रदेश निरवशेष रूप से गृहीत होते हैं तभी उसे धर्मास्तिकाय, कहा जाता है । धर्मास्तिकाय के समान ही अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय का भी अखण्ड रूप स्वीकार किया जाता है । अस्तिकाय एवं द्रव्य का भेद पुद्गल और जीव में पूर्णतः स्पष्ट होता है, क्योंकि वे द्रव्य से अनन्त हैं एवं अस्तिकाय से एक-एक हैं । जब पुद्गलास्तिकाय शब्द का प्रयोग किया जाता है तो उसमें समस्त पुद्गलों का समावेश हो जाता है, किन्तु द्रव्य की दृष्टि से पुद्गल अनन्त हैं । स्कन्ध, देश एवं प्रदेश भी पुद्गल द्रव्य हैं । पुस्तक, भवन, लेखनी, कुर्सी आदि पुद्गल द्रव्य हैं,