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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
किंवा एक प्रदेशी होता है । जैन ग्रन्थों के अनुसार प्रत्येक आकाश प्रदेश पर एक पृथक् कालाणु की सत्ता है । लोकाकाश असंख्यात प्रदेशी है, उसके प्रत्येक प्रदेश पर रत्नों की राशि की भांति काल द्रव्य के एक-एक कालाणु अवस्थित हैं । ये भी आकाश प्रदेशों की भाँति असंख्यात हैं, किन्तु व्यवहार नय से अनन्त पर्यायों की वर्तना में निमित्त होने से यह काल अनन्त भी कहा जाता है । इन कालाणुओं में स्निग्ध एवं रुक्ष गुण का अभाव होने से इनका प्रदेश प्रचय अथवा संचय नहीं बन पाता है। इसीलिए काल द्रव्य का कायत्व अथवा अस्तिकायत्व मान्य नहीं है । ये कालाणु निरंश एवं निष्क्रिय होते हैं काल अनन्त समयस्वरूप होता है । तत्त्वार्थसूत्र में सोऽनन्तसमय: सूत्र के द्वारा इसका स्पष्ट उल्लेख हुआ है। 'समय' काल की सूक्ष्मतम इकाई है, जिसे एक सेकण्ड का भी असंख्यातवाँ भाग कहा जा सकता है। क्योंकि गणित के आधार पर एक सेकण्ड में 5825 आवलिकाएँ बीत जाती हैं एवं एक आवलिका में असंख्यात समय होते हैं। दूसरी ओर एक मुहूर्त (48 मिनट) में एक करोड़ सडसठ लाख सत्तहत्तर हजार दो सौ सोलह आवलिकाएँ होती हैं । वर्तमान एक समय का होता है तथा अतीत एवं अनागत अनन्त होता है । पंचास्तिकाय की तात्पर्यवृत्ति में प्रश्न उठाया गया है कि जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल को समय कहते हैं तो एक समय में परमाणु चौदह रज्जु लोक तक गमन करे तो क्या जितने आकाश प्रदेश हैं, उतने ही समय मानने चाहिए? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि
आगम में जो परमाणु की एक समय में एक आकाश प्रदेश से दूसरे आकाश प्रदेश में गमन की बात कही गई है वह मन्दगति से कही गई है तथा एक समय में परमाणु का चौदह रज्जु गमन शीघ्र गति की अपेक्षा से है। विद्यानन्द सूरि ने पर्याय से एवं व्यवहार से काल को अनन्त समयक माना है तथा द्रव्य से एवं परमार्थतः उसे लोकाकाश प्रदेश परिमाणक स्वीकार किया है
सोऽनन्तसमयः प्रोक्तो भावतो व्यवहारतश्च।
द्रव्यतोजगदाकाशप्रदेशपरिमाणकः।।" पर्याय से काल अनन्त समय वाला है, क्योंकि वह अनन्त पर्यायों की वर्तना का