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काल का स्वरूप
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पूज्यपाद देवनन्दी ने प्रायोगिक एवं वैनसिक ये दो भेद निरूपित करते हुए शकट आदि की गति को प्रायोगिक एवं मेघ आदि की गति को वैनसिक कहा है । " शकट को अश्व या वृषभ खींचते हैं, अतः जीव के प्रयत्न से युक्त होने के कारण यह प्रायोगिकी गति है तथा मेघ आदि स्वतः स्वाभाविक गति करते हैं अतः उनकी गति वैस्रसिकी कहलाती है । लुढ़कती हुई गेंद को पैर से धक्का मारने पर जो गति होती है उसे मिश्रिका कहा जा सकता है, क्योंकि उसमें स्वतः गति के साथ जीव का प्रयत्न भी सम्मिलित है । विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में क्रिया को द्रव्य की वह परिस्पन्दात्मक पर्याय माना है जो देशान्तर प्राप्ति में हेतु होती है तथा वह गति, भ्रमण आदि भेदों से युक्त होती है । "
अब प्रश्न यह है कि क्रिया अथवा गति में तो निमित्त कारण धर्मास्तिकाय द्रव्य है, फिर काल भी उसमें निमित्त कैसे हुआ? यहाँ समझना यह है कि धर्मास्तिकाय जहाँ पदार्थों / द्रव्यों की सर्वविध गति में सीधा निमित्त कारण है वहाँ काल द्रव्य उस गति/क्रिया की निरन्तरता या अवधि का ज्ञान कराता है एवं उसमें निमित्त भी होता है । यदि काल / समय न हो तो क्रिया की अवधारणा घटित नहीं हो सकती । व्याकरण दर्शन में जहाँ 'अमूर्तक्रियापरिच्छेदहेतुः कालः कहा गया है वहाँ जैनदर्शन में क्रिया की निष्पत्ति में भी काल को हेतु कहा जाता है ।
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परत्व-अपरत्व शब्दों का प्रयोग काल के सन्दर्भ में ज्येष्ठ-कनिष्ठ, नया-पुराना आदि अर्थों में अथवा पूर्वभावी पश्चाद्भावी के अर्थ में होता है । काल को स्वीकार किए बिना परत्व - अपरत्व बोध होना कठिन है
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इस प्रकार वर्तना को प्रथम समयाश्रित, परिणाम को द्वितीयादि समयाश्रित, अपरिस्पन्दात्मक पर्याय तथा क्रिया को बहुसमयाश्रित, परिस्पन्दात्मक गति, चेष्टा आदि कहा जा सकता है । परत्व - अपरत्व के स्वरूप में कोई विवाद नहीं है । वर्तनालक्षण काल परमार्थ काल है तथा परिणामादि लक्षण काल व्यवहार काल है । " काल का स्वरूप
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जैन दर्शन में काल अमूर्त है तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित मान्य है । वह अगुरुलघु गुण युक्त होता है । उसका प्रमुख लक्षण वर्तना है ।" यह अप्रदेशी