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काल का स्वरूप
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होता है। वर्तना एवं परिणाम शब्दों का प्रयोग काल के स्वरूप-विवेचन में जैन दार्शनिकों ने ही किया है। वर्तना, परिणाम एवं क्रिया में अत्यन्त-सूक्ष्म भेद है। परत्वापरत्व का अभिप्राय तो जैन दर्शन में भी वही है जो वैशेषिक दर्शन में मान्य है। अर्थात् परत्व शब्द ज्येष्ठ का बोधक है एवं अपरत्व कनिष्ठ का बोध कराता है। ज्येष्ठ-कनिष्ठ का व्यवहार काल के आश्रित है। यदि काल नामक द्रव्य मान्य न हो तो ज्येष्ठ-कनिष्ठ का भेद नहीं हो सकेगा। अब वर्तना, परिणाम एवं क्रिया का स्वरूप समझ लें । तत्त्वार्थभाष्य में कहा गया है- "सर्वभावानां वर्तना कालाश्रया वृत्तिः। समस्त पदार्थो की जो काल के आश्रित वृत्ति है वह वर्तना है। दूसरे शब्दों में कहें तो वस्तु अस्तित्व काल के आश्रित है। सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद कहते हैं"वृत्तेर्णिजन्तात्कर्मणिभावे वायुटि स्त्रीलिङ्गेवर्तनेति भवति।वय॑ते वर्तनमात्रंवा वर्तना इति। धर्मादीनां द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृतिं प्रति स्वात्मनैव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाद्विना तवृत्त्यभावात्तत्प्रवर्तमानोपलक्षितः काल इति कृत्वा कालस्योपकारः।” 'वर्तना' शब्द 'वृतु वर्तने' धातु से णिच् प्रत्यय एवं फिर युट् प्रत्यय लगकर बना है। वस्तु का वर्तनमात्र वर्तना है। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव एवं पुद्गल द्रव्य अपनी पर्यायों को स्वयं प्राप्त होते हैं, तथापि उनमें बाह्य उपग्रह के रूप में काल कारण बनता है । वह उदासीन निमित्त कारण होता है । वर्तना के उपादान कारण तो स्वयं धर्म, अधर्म आदि द्रव्य होते हैं । यह वर्तना उत्पत्ति, स्थिति अथवा गति के रूप में प्रथम समय आश्रित मानी गई है जैसा कि तत्त्वार्थभाष्यकार कहते हैं- 'वर्तना उत्पत्तिः स्थितिरथ गतिः प्रथमसमयाश्रयेत्यर्थः। द्रव्य चाहे उत्पत्ति अवस्था में हो, चाहे स्थिति अवस्था में हो या गति अवस्था में, वह जिस भी अवस्था में प्रथम समय में वर्तमान है वह काल के वर्तना नामक उपग्रह या कार्य का फल है। परिणाम, क्रिया आदि की व्याख्या द्वितीयादि समयों के आश्रित होती है। लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय जी कहते हैं
द्रव्यस्य परमाण्वादेर्या तद्रूपतया स्थितिः।
नवजीर्णतयावासा वर्तनापरिकीर्तिता।।" अर्थात् द्रव्य की या परमाणु आदि की तत्स्वरूप से अथवा नवीनता या जीर्णता रूप से जो अवस्थिति है वह वर्तना कही गई है।