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काल का स्वरूप
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भी यह उल्लेख नहीं है कि द्रव्य पाँच होते हैं । इस आगम संदर्भ से ही सिद्ध होता है कि काल भी एक द्रव्य है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र एवं अनुयोगद्वार सूत्र में धर्मास्तिकायादि छह द्रव्यों का कथन है ।" काल की पृथक्द्रव्यता सिद्धि में आचार्य विद्यानन्द, मलयगिरि और उपाध्याय विनयविजय ने अनेक तर्क दिए हैं। विद्यानन्द दिगम्बर दार्शनिक हैं, किन्तु तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में उन्होंने द्रव्य के लक्षण 'गुणपर्यायववव्यम्" को काल में घटित करने का प्रयत्न किया। वे कहते हैं कि 'द्रव्य' गुण एवं पर्याययुक्त होता है। काल भी गुणयुक्त एवं पर्याययुक्त होता है । काल में सामान्यतः संयोग, विभाग, संख्या, परिमाण आदि गुण तथा विशेषरूप से सूक्ष्मत्व, अमूर्तत्व, अगुरुलघुत्व, एक प्रदेशत्व आदि गुण होते हैं । अन्य पदार्थों के क्रम-वर्तन में जो वर्तना आदि कारण हैं वे काल की पर्याय हैं, अतः काल भी गुणपर्यायवान् होने से द्रव्य है।
प्रश्न उत्पन्न होता है कि अलोकाकाश में कालद्रव्य नहीं होता है अतः वहाँ पर्यायपरिवर्तन कैसे होता है? इस प्रश्न के उत्तर में विद्यानन्द कहते हैं कि आकाश तो अखण्ड है उसके लोकाकाश एवं अलोकाकाश भेद औपचारिक हैं । अतः लोकाकाश में कालद्रव्य के निमित्त से जो पर्याय परिर्वतन होता है वह सम्पूर्ण आकाशद्रव्य का एक साथ होता है। अतः अलोकाकाश का भी पर्याय परिवर्तन साथ ही हो जाता है। आचार्य मलयगिरि काल को द्रव्य सिद्ध करने हेतु निम्नलिखित तर्क देते हैं-36 1. धर्मास्तिकायादि पाँच द्रव्यों से पृथक् अढाई द्वीप समुद्र के भीतर रहने वाला
षष्ठ काल द्रव्य है जिसके कारण बीता हुआ कल, आने वाला कल इत्यादि का ज्ञान होता है तथा ये कालवाची शब्द भी यथार्थ हैं, क्योंकि आप्त के द्वारा
प्रयोग किए गए हैं। 2. आगम में भी साक्षात् कहा गया है कि छठा द्रव्य काल है, यथा “कइणं भंते
दव्वा पण्णत्ता?! छ दव्वा पण्णत्ता तंजहा धम्मत्थिकाए, अधम्मत्थिकाए
आगासत्थिकाए, जीवत्थिकाएपोग्गलत्थिकाए अद्धासमए इति।" 3. यह अद्धासमय पूर्वापर कोटि से रहित नहीं है, क्योंकि अत्यन्त असत् का
उत्पाद नहीं होता तथा सत् का सर्वथा विनाश नहीं होता, अपितु वह काल