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जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन
आचार्य मलयगिरि वैशेषिकों की इस युक्ति का प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि यदि काल एक ही है तो उसमें पूर्वापरत्व कैसे सम्भव हैं ? यदि सहचारी के सम्पर्क के कारण काल की पूर्वत्व, अपरत्व आदि कल्पना की जाती है तो यह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि इतरेतराश्रय दोष का प्रसङ्ग आता है। क्योंकि सहचारी राम आदि की पूर्वता कालगत पूर्वत्वादि योग से होगी एवं काल की पूर्वत्वादिता सहचारी राम आदि के योग से होगी। इस प्रकार एक के असिद्ध होने पर दूसरा असिद्ध हो जाता है । इसलिए पर परिकल्पित काल युक्ति से अनुपपन्न होने के कारण वर्तनालक्षण काल ही स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि इसमें बिना कठिनाई के पूर्व आदि का प्रयोग सम्भव है, क्योंकि अतीत वर्तना को पूर्व, भावी वर्तना को अपर और तत्काल में होने वाली वर्तना को वर्तमान कहा जाता है। उस वर्तना लक्षण काल के प्रति द्रव्य भिन्न होने के कारण यह अनन्त है। इसलिए यह कथन उपयुक्त है कि वह काल जीवाजीवादि पर्याय रूप धर्म है।
काल पृथक् द्रव्य नहीं है,इसकी पुष्टि में लोकप्रकाशकार उपाध्याय विनयविजय कहते हैं-“वर्तनादि पर्याय रूप काल जीव-अजीव का स्वरूप है एवं द्रव्य से अभिन्न हैं। वर्तनादिस्वरूप काल पृथक् द्रव्य नहीं हो सकता, क्योंकि यदि द्रव्य की पर्याय ही पृथक् द्रव्य के रूप में स्वीकार की जायेगी तो अनवस्था दोष का प्रसङ्ग उपस्थित होगा । काल तो द्रव्यों के पर्यायरूप है, अतः वह पृथक् द्रव्य नहीं हो सकता ।" उपाध्याय विनयविजय अन्य तर्क देते हुए कहते हैं, "जिस प्रकार व्योम सर्वत्र विद्यमान होने से अस्तिकाय माना जाता है तो उसी प्रकार वर्तमानस्वरूप एवं सर्वत्र व्याप्त काल को भी अस्तिकाय की कोटि में अङ्गीकार किया जाना चाहिए, किन्तु ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि आगमों में पाँच ही अस्तिकाय माने गए हैं"।" इस प्रकार जहाँ काल की पृथक् द्रव्यता का निरसन किया गया है वहाँ जैनदार्शनिक काल की पृथक् द्रव्यता को सिद्ध करने में भी अनेक हेतु प्रस्तुत करते हैं। काल की पृथग्द्रव्यतासिद्धि में तर्क
यह तो विदित ही है कि दिगम्बर परम्परा में निर्विवाद रूप से काल को पृथक् द्रव्य अङ्गीकार किया गया है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा भी इसकी सिद्धि में अनेक तर्क प्रस्तुत करती है। आगमों में द्रव्य छह कहे गए हैं तथा अस्तिकाय पाँच । कहीं